अमेरिका जलवायु परिर्वतन के खतरों से निपटने के लिए फिर से अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं जिसे डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन में ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. इसी सिलसिले में अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के क्लाइमेंट दूत जॉन केरी तीन दिन की भारत यात्रा पर रहे. जॉन केरी की यात्रा का फौरी मकसद यह है कि बाइडेन के क्लाइमेंट लीडर समिट से पहले इसमें भाग लेने वाले देशों के साथ बातचीत करना है. इस वर्चुअल समिट में पीएम नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया गया है.
अमेरिका वैश्विक जलवायु परिवर्तन से निपटने की मुहिम का नेतृत्व फिर से हासिल करने के प्रयास में है. उसका मकसद है कि 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को नेट जीरो यानी नगण्य कर दिया जाए.
ब्रिटेन और फ्रांस सहित कई अन्य देशों ने पहले से ही कानून बनाए हैं, जो इस सदी के मध्य तक नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य रखते हैं. यूरोपीय संघ भी ऐसा कानून बनाने पर काम कर रहा है जबकि कनाडा, दक्षिण कोरिया, जापान और जर्मनी सहित कई अन्य देशों ने नेट जीरो को लेकर अपने इरादे जाहिर किए हैं. यहां तक कि चीन ने 2060 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का वादा किया है.
अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने वाला देश है. जॉन केरी की यात्रा का मकसद यह है कि भारत को 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का संकल्प लेने के लिए राजी किया जा सके. अमेरिका चाहता कि भारत अपना पुराना रुख छोड़े.
कॉर्बन को खत्म करने की प्रक्रिया को नेट-जीरो कहते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई देश अपने उत्सर्जन को शून्य पर लेकर चला आए. नेट जीरो एमिशन का मतलब एक ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार करना है जिसमें जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बिल्कुल खत्म हो जाए.
नेट जीरो एमिशन के तहत ईंधन की वैकल्पिक व्यवस्था करनी होती है जिससे सभी उद्योग संचालित हों. कार्बन उत्सर्जन करने वाली दूसरी चीजों का इस्तेमाल बिल्कुल कम करना होता है, जिन चीजों से कार्बन उत्सर्जन होता है उसे सामान्य करने के लिए कार्बन सोखने के इंतजाम भी करने होते हैं. नेट-जीरो एमिशन का मतलब एक ऐसी व्यवस्था तैयार करना है जिसमें कार्बन उत्सर्जन का स्तर लगभग शून्य हो. धरती की 3 प्रतिशत जमीन पर स्थित शहर दुनिया का 70 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करते हैं. कहा जा रहा है कि अगर दुनिया के तापमान को आधी सदी तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना है तो शहरों को नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना होगा.
असल में, पिछले दो साल से यह मुहिम चल रही है कि दुनिया का हर देश नेट-जीरो एमिशन-2050 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस करार पर हस्ताक्षर करे. कहा जा रहा है कि 2050 तक वैश्विक कार्बन न्यूट्रैलिटी हासिल करना ही मात्र रास्ता है जो धरती के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस पर रखे. पेरिस समझौते का मकसद भी यही है. यहां तक माना जा रहा है कि कार्बन एमिशन रोकने के लिए फिलहाल जो प्रयास किए जा रहे हैं वो नाकाफी हैं.
कार्बन एमिशन की खातिर नेट-जीरो को लेकर दुनिया के देशों में सहमति नहीं बन पा रही है. नेट जीरो हासिल करने के लिए प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर रोक लगानी होगी. इसके मुताबिक जो उद्योग जितना ज्यादा एमिशन करेंगे, उन्हें उतना ही ज्यादा इंतजाम इस प्रदूषण को खत्म करने के लिए करना होगा. 2050 के लिए अभी से योजना बनाने की वजह ये है कि जीरो नेट एमिशन के लिए किए जाने वाले इंतजाम एक लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरेंगे, ऐसे में ये कदम जितनी जल्दी उठा लिए जाएं वो उतनी जल्दी ही पूरे हो सकेंगे.
मगर भारत अभी नेट-जीरो एमिशन का विरोध कर रहा है क्योंकि उसे इससे सबसे अधिक प्रभावित होने की संभावना है. भारत की स्थिति अद्वितीय है. अगले दो से तीन दशकों में, भारत का उत्सर्जन दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने की संभावना है, उसे अपनी विकास दर को तेज करना है ताकि सैकड़ों करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला जा सके. जंगल बढ़ाने या कोई अन्य उपाय करने से उत्सर्जन की भरपाई नहीं की जा सकती है. अभी कार्बन हटाने वाली अधिकांश तकनीकें या तो अविश्वसनीय हैं या बहुत महंगी हैं.
पेरिस समझौता इस साल से लागू होना है ताकि 2050 तक एमिशन कम करने के लक्ष्य को हासिल किया जा सके. लेकिन भारत बार-बार इस बात की ओर भी इशारा करता रहा है कि विकसित राष्ट्र अपने पुराने वादों और प्रतिबद्धताओं पर कभी खरे नहीं उतरे हैं. किसी भी प्रमुख देश ने क्योटो प्रोटोकॉल के तहत उन्हें सौंपे गए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य को हासिल नहीं किया.
कई देश तो खुले तौर पर क्योटो प्रोटोकॉल से बाहर चले गए. 2020 तक किए गए वादों पर किसी भी देश ने ध्यान नहीं दिया. इससे भी बदतर है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिए विकासशील और गरीब देशों को धन, और प्रौद्योगिकी मुहैया कराने की उनकी प्रतिबद्धता को लेकर उनका ट्रैक रिकॉर्ड ठीक नहीं है.