LIVE INDIA: नीतीश कुमार ने नोटबन्दी का समर्थन किया है। अच्छी बात है। उनकी आजादी है। पर विपक्ष के एक दल को और जनता से सीधे जुडी एक पार्टी के नेता को लोगोँ की तकलीफ के साथ मुल्क की अर्थव्यवस्था के लाभ घाटे को देखना भी जरूरी है।
अब उनकी पार्टी अठाइस के भारत बन्द से दूर ही नहीँ रहने बल्कि इसका विरोध करने जा रही है। और यह उनकी पार्टी के नेता शरद यादव जैसोँ को भुगतना पडेगा कि वे अपनी पार्टी के फैसले और अब तक विपक्षी अभियान का अगुआ बनने की उनकी मुहिम की दुविधा को कैसे सुलझाते हैँ। पर यह छोटी बात है। बडी बात नरेन्द्र मोदी को उस असमय समर्थन देना है जब खुद उनकी पारटी और संघ की दुविधा भी रह-रह कर उजागर हो रही है और खुद प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से आंसू बहा चुके हैँ।
नीतीश कुमार उनको क्योँ समर्थन दे रहे हैँ इसकी बाकी जो भी अप्रकट बातेँ होंगी उनका कयास लगाने की जरूरत नहीँ है। पर वे अपनी साफ सुथरी छवि को और साफ करने के लिए यह फैसला कर सकते हैँ क्योंकि वे काम के साथ छवि अर्थात पर्सेप्शन की राजनीति को भी मानते हैँ-केजरीवाल और जयललिता जैसे लोगोँ की तरह। पर इस लेखक जैसे काफी लोग हैँ जिनका मानना है कि नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी के एक अपरिपक्व फैसले का समर्थन करके न सिर्फ गलती कर रहे हैँ बल्कि देश की राजनीति मेँ दूसरा केन्द्र बन सकने का अपना अवसर भी गंवा रहे हैँ।
इस समय अगर वे देश के लोगोँ की तकलीफ और अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान के सवाल पर नोटबन्दी का विरोध करते तो विपक्ष के साथ देश का दुलारा बन सकते थे। और नोटबन्दी के विरोध का मतलब कालाधन का समर्थन है, इस भ्रम को तोडने मेँ भी मदद मिलती। अगर आप देश के लोगोँ के कष्ट के समय उनके साथ नहीँ खडे होते हैँ और अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान को नहीँ समझ पा रहे हैँ तो आपको राजनीति मेँ रहने और बडा नेता बनने का भ्रम छोड देना चाहिये। यह बात तो तय है कि अब इस जगह से नोटबन्दी के सवाल पर वापस जाना असम्भव है। नुकसान भी दिखने लगा है। पर यह भी मान लेँ कि यह सफल हुआ तो श्रेय और छवि का लाभ नीतीश कुमार को कौन देगा-यह तो मोदी का खेल है और लाभ-घाटा उन्हे ही होना है।
नीतीश इसके विरोध मेँ ही उभर सकते थे या दुविधा थी तो चुप रह जाते। विरोध की अगुआई अरविन्द केजरीवाल, मायावती, मुलायम, लालू प्रसाद और ममता जैसे लोग कर रहे हैँ जिन पर कालाधन वाला होने या कालाधन समर्थक होने का लेबल चिपकाना आसान है। राहुल गान्धी, कांग्रेस और वाम दलोँ को भी यह दुविधा रही।
शायद इसी डर से ये लोग भी बीस दिन बाद ही जाकर विरोध का कोई कार्यक्रम करने की हिम्मत कर पाए वरना संघ और भाजपा के लोग तो बैंक के सामने लाइन मेँ खडे लोगोँ के लिये चाय-बिस्किट पहुंचाने से लेकर नारे लगवाने तक के काम करने मेँ नहीँ हिचके। विरोधी दुबके रहे और किसी केजरीवाल ने जुबान खोली भी तो उनकी विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि उसका उल्टा असर हुआ। पर नीतीश और नवीन पटनायक जैसे कुछेक नेता ही बचे हुए थे जिनकी बात का असर होता। नवीन पटनायक की दिलचस्पी राष्ट्रीय राजनीति मेँ कम रही है-नीतीश तो कब से इसके लिए हाथ-पांव मार रहे थे। पर लगता है नोटबन्दी का समर्थन और बन्द का विरोध करके उन्होने अपने पांव पर कुल्हाडी मार ली है।