बिहार में खेतों में 20 साल पुरानी सुगंधित धान की फसलें फिर से लहलहाएंगी। इससे किसानों को अधिक उत्पादन के साथ-साथ नुकसान काफी कम होगा। नालंदा, बक्सर, कैमूर,कटिहार, पूर्णिया, चंपारण, बेतिया, गया में होने वाली धान की फसलों का चयन करके भागलपुर कृषि विवि के कृषि वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे हैं।
पूरी प्रक्रिया में और तीन साल का समय लगेगा
कृषि वैज्ञानिकों का मकसद इन पौधों की लंबाई घटाकर उसके सुंगध को बरकरार रखना है। धान की पुरानी फसलों में नालंदा का मालभोग, बक्सर-कैमूर का सोनाचूर, कटिहार-पूर्णिया का जसुआ, हफसाल, बेतिया और चंपारण का चंपारण बासमती, भागलपुर का कतरनी, मगध का कारीबाग, गया का श्यामजीरा नस्ल को शामिल किया गया है।
इन फसलों को बौनी प्रजाति आईआर-64 और बीपीटी 5204 से क्रासिंग कराकर इसके जेनेटिक गुण को बदलकर बौना बनाया जाएगा। इस दिशा में बीएयू में पिछले साल क्रासिंग का काम हो चुका है। दिसंबर माह में क्रासिंग के बाद जो बीज मिला है उसकी लैब में जांच होगी। जांच के बाद उसे बीएयू में लगाया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में और तीन साल का समय लगेगा।
आधुनिक शोध के द्वारा पारंपरिक खेती को बचाने की दिशा में बीएयू के वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। कतरनी सहित धान की कई फसलों पर एक साथ काम चल रहा है।
एक हेक्टेयर में पांच क्विंटल तक होगी पैदावार
पुरानी धान की फसलें सुगंधित होती थी। मगर पौधे की लंबाई 155-160 सेमी होने की वजह से पौधे अधिक गिर जाते थे। इससे किसानों को नुकसान होता था।
किसानों ने इसकी खेती लगभग छोड़ दी। मगर अब जो बौने किस्म के पौधे होते है वह सुगंधित नहीं रहता है। अब पुरानी फसलों से क्रासिंग के बाद खाने में सुगंध भी बढ़ेगा। साथ ही बौने होने पर एक हेक्टेयर में पांच क्विंटल तक पैदावार भी देगा।
अगले साल कतरनी का नया पौधा लगेगा खेतों में
कतरनी पर काम काफी अच्छा चल रहा है। उन्होंने कहा कि 160 सेमी तक कतरनी पौधे की लंबाई होती थी। जिसे घटाकर 120 सेमी तक लाने की योजना है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2020 के अंत तक बौनी कतरनी किसानों के पास होंगे।
पहले कतरनी का उत्पादन 160 दिनों में होता था इसे घटाकर 130-140 दिनों में लाया जा रहा है। यानि कतरनी एक माह पूर्व ही तैयार हो जाएगा। उन्होंने कहा कि इससे न सिर्फ भागलपुर बल्कि बांका सहित राज्य के कई हिस्सों में इसका उत्पादन होगा।