दो ओलंपिक और तीन विश्वकप में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने भारतीय हॉकी को लेकर अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा कि देश में हॉकी के खेल में गिरावट आई है। हॉकी के मैच केवल हार-जीत तक सीमित रह गए हैं। अब हॉकी के मैचों को न तो दर्शक मिलते हैं और न प्रेस कवरेज मिलती है।
दिल्ली और देशभर में हॉकी की आधारभूत संरचना पहले की तुलना में सुधरी है, बावजूद इसके इसकी चमक फीकी पड़ गई है। आज हॉकी के हालात ऐसे हैं कि घरेलू टीमों और इनके खिलाड़ियों के नाम शायद ही कोई जानता हो। दो ओलंपिक और तीन विश्वकप में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने भारतीय हॉकी को लेकर अपने अनुभव साझा करते हुए ये बातें कहीं।
उन्होंने बताया कि हॉकी के खेल में गिरावट आई है। हॉकी के मैच केवल हार-जीत तक सीमित रह गए हैं। अब हॉकी के मैचों को न तो दर्शक मिलते हैं और न प्रेस कवरेज मिलती है। अपनी युवा अवस्था के दिनों में हॉकी की चमक को याद करते हुए अर्जुन पुरस्कार अवार्डी अशोक कुमार बताते हैं कि उस समय लोग हॉकी का हरेक मैच देखने जाते थे। 1956 तक देश ने सात गोल्ड मेडल जीते। 1980 में आठवां मेडल जीता। दिल्ली में मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में इंडियन एयरलाइंस और पंजाब पुलिस जैसी टीमों के मैच देखने के लिए दर्शकों की भीड़ लगती, लेकिन अब वो क्रेज खत्म हो गया।
1976 में मॉन्ट्रियल ओलंपिक से आए एस्ट्रो टर्फ से आया बदलाव
1976 में मॉन्ट्रियल ओलंपिक से घास के मैदान वाली फील्ड की जगह एस्ट्रो टर्फ मैदान पर हॉकी के मुकाबले शुरू हुए। घास की फील्ड पर यूरोप की टीमें भारत, पाकिस्तान के खिलाड़ियों को पकड़ नहीं पाती थीं, लेकिन नियम बदलने के बाद करीब 10 साल तक भारत में केवल 1-2 एस्ट्रोटर्फ ग्राउंड थे। आज भी हमारे पास सीमित एस्ट्रोटर्फ हॉकी ग्राउंड हैं। हॉकी लगातार पिछड़ती गई और किसी ने सहयोग नहीं किया। दिल्ली में केवल मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में एस्ट्रोटर्फ हॉकी ग्राउंड है, यहीं खिलाड़ी मैच भी खेलते हैं।