पिछली दो सदियों के दौरान भारत में इतिहास की जिन किताबों ने सामाजिक उथल पुथल में भूमिका अदा की है, उनमें अहम हैं ज्योतिबा फुले की गुलामगिरी, गांधी की हिंद स्वराज, मार्क्स और एंगेल्स का कम्युनिस्ट घोषणा पत्र और अंबेडकर का जाति तोड़ो मंडल के लिए लिखा गया लंबा लेख – जाति का बीजनाश.गुलामगिरी के लेखक और वर्ण व्यवस्था को चुनौती देने वाले फुले के बारे में हिंदी भाषी क्षेत्र में जानकारी की भारी कमी है.
फुले को गुरु मानने वाले अंबेडकर के कारण हिंदीभाषी इलाकों में फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले का जिक्र होता है. लेकिन इन दोनों का योगदान इससे कहीं व्यापक है.
क्रांतिज्योति फुले: सामाजिक समानता के प्रवर्तक
फुले को हम भारतीय समाज का कार्ल मार्क्स कह सकते हैं. वैसे भी वह मार्क्स के समकालीन थे .
वो फुले ही थे जिन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था में सामंतवाद से उभर रहे पूंजीवाद को समझने की शुरुआती कवायद की थी. इसी प्रक्रिया में उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का प्रकाशन किया था.
उन्होंने अपनी पुस्तक गुलामगिरी को अमेरिकी अश्वेत समुदाय को समर्पित किया.
फुले की ही प्रेरणा और सहयोग था जिसके कारण उनकी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख ने 1848 में लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना की. याद रहे कि बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना भी इस स्कूल की स्थापना के नौ वर्ष बाद हुई थी.
लड़कियों के स्कूल के मसले पर फुले और उनके पिता गोविंद राव का बहुत झगड़ा हुआ. यहां तक कि उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया पर जब 1868 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया.
1873 में फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर भारतीय समाज में वैज्ञानिक चिंतन और तर्क की प्रधानता को स्थापित किया. इसी वर्ष उनकी पुस्तक गुलामगिरी छपी.
जाति और वर्ग
फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से वर्गऔर जाति की अवधारणा है.
वे हिंदू धर्म के बजाए ‘ब्राह्मणवाद’ को अपनी आलोचना के क्रेंद्र में रखते हैं.
उन्होंने अवतारवाद का भी विरोध किया.
फुले सिर्फ यही नहीं रुके. उन्होंने जाति और वर्ग के आपसी संबंधों पर काफी काम किया. वे जाति को उत्पादन के औजार के तौर पर देखते थे.
इसकी एक नज़ीर उनके लिखे पंवाड़ा नामक अभंग में दिखती है.
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इस अभंग में वह इंजीनियरिंग विभाग के सवर्ण अधिकारियों पर बेहद मार्मिक व्यंग्य करते है. वे कहते हैं कि-
पेशवाई दक्षिणा विलासी इंजीनियर खा जाते, होलकर बोरियां भर भर कर ले जाते….आलसी, धर्म की छाया में झूमते,बेगारों के धंधे को नीच मानते ढोंगी, खुद कितनी खुशामदगीरी करते ये पोंगी… हाजिरी रजिस्टर हाथ में ले साइट पर जाते हैं मज़दूरों को जी भर सताते.
दरअसल फुले बात भारत की कर रहे थे लेकिन उनकी नज़र पूरी दुनिया के शोषण और अन्याय पर थी.
वे सामाजिक परिवर्तन को क्रांतिकारी बनाने की भी वकालत कर रहे थे. इसीलिए उन्होंने ‘ब्राह्मणवादी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था’ को ख़ारिज ही नहीं किया बल्कि इसे फर्ज़ी भी बताया.
फुले ने अपनी रचनाओं जैसे ‘किसान का कोड़ा’ में किसानों और खेतिहर मजदूरों की बात ही नहीं की बल्कि आगे बढ़कर इनका नेतृत्व भी किया.
1875 में पुणे और अहमदनगर के ऐतिहासिक किसान आंदोलन में उनकी भूमिका वैसी ही थी जैसी पेरिस कम्यून के समय कार्ल मार्क्स की.
स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता के पक्षधर
महात्मा फुले हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करते थे. इसीलिए जब पंडिता रमाबाई ने धर्म परिवर्तन किया तो उन्होंने उनके समर्थन में लोगों को लामबंद किया.
(सभी फोटो: संजीव माथुर)