कांग्रेस की विरासत : प्रियंका गांधी के लिए बड़ा सियासी मौका है 2022 का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश की सियासी गंगा में कांग्रेस की तीन दशक से जर्जर हो चुकी नाव की पतवार संभाल कर नाव को मझधार में उतार दिया है। उन्हें अगले दस-ग्यारह महीनों में पार्टी की इस नाव को उस मुकाम तक पहुंचाना है, जहां से देश के सबसे बड़े और सबसे अहम सियासी राज्य की सत्ता का सिंहासन है। चुनौती बड़ी है और यह चुनौती कांग्रेस से ज्यादा खुद प्रियंका के लिए है, क्योंकि इस सियासी अग्निपरीक्षा से ही कांग्रेस महासचिव के लिए सियासत के किले का वह बंद दरवाजा खुलेगा, जो उन्हें उस मुकाम तक पहुंचा सकता है, जो कभी उनकी दादी ने कांग्रेस के भीतर और बाहर संघर्ष करके अपने लिए बनाया था।

लेकिन यह बंद दरवाजा खोलने के लिए सिर्फ ‘खुल जा सिम सिम’ कहने से काम नहीं चलेगा, बल्कि कांग्रेस की इस खेवनहार को पार्टी के लिए बंजर हो चुकी उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन पर जो तोड़ मेहनत करनी होगी और इसके लिए सिर्फ प्रियंका गांधी का करिश्मा ही काफी नहीं होगा, बल्कि उन्हें अपने साथ पार्टी नेताओं की एक एसी मजबूत टीम तैयार करनी होगी, जो विरोधियों की हर चाल का माकूल जवाब दे सके और उनकी मेहनत को जमीन पर उतार सके। कांग्रेस के भीतरी सूत्रों का कहना है कि खुद प्रियंका इसे लेकर बेहद गंभीर हैं और उन्होंने इस पर विचार भी शुरू कर दिया है। मुमकिन है कि जल्दी ही उनकी नई टीम सामने भी आ जाए।

जहां तक प्रदेश में मौजूदा कांग्रेस का सवाल है तो 1989 से अब तक कांग्रेस हर विधानसभा चुनाव में इतना हारी है कि अब हारने के बाद उसके नेताओं के पास रोने के आंसू तक नहीं बचे हैं, इसलिए अगर 2022 भी हार गई तो पार्टी के थक चुके और छके नेताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, लेकिन प्रियंका गांधी के सियासी सफर पर जरूर ग्रहण लग जाएगा। हालांकि यह कहा जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रियंका के करिश्मे का इम्तिहान हो चुका है क्योंकि कांग्रेस ने बड़ी उम्मीदों और दावों के साथ उनको मैदान में उतारा था। लेकिन 2019 का मुकाबला प्रियंका का नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच था, जिसमें मोदी ने बाजी मारी और राहुल विफल रहे।

प्रियंका उस चुनाव में महज राहुल की सहायक थीं और जब नायक असफल होता है तो पूरी टीम असफल होती है। लेकिन इस बार 2022 में उत्तर प्रदेश में राहुल के नहीं प्रियंका के हाथों में कमान है और मुकाबला उनके, अखिलेश, मायवाती और योगी आदित्यनाथ के बीच होगा। अभी तक योगी आदित्यनाथ सवा तीन सौ से ज्यादा विधायकों के प्रचंड बहुमत के साथ उस भाजपा के रथ पर सवार हैं जिसके पास राज्य की सत्ता, केंद्र की सत्ता, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का पूरा संगठन तंत्र, जिसमें सभी अनुषांगिक संगठन शामिल हैं, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ भगवा वस्त्रधारी मुख्यमंत्री के हिंदुत्व का बल समेत नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय नेता, अमित शाह जैसा रणनीतिकार और जेपी नड्डा जैसा सक्रिय पार्टी अध्यक्ष है।

जबकि अखिलेश यादव उस समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हैं, जिसके पास धऱती पुत्र मुलायम सिंह यादव की दशकों की संचित सियासी पूंजी, जातीय और सामाजिक समीकरणों की ताकत, चार बार राज्य में सरकार बनाने और चलाने का अनुभव और अपनी पिछली सरकार के समय के विकास कार्यों की थाती है। वहीं बसपा के हाथी पर सवार बहुजन आंदोलन की सियासी उपज मायावती के पास चार बार मुख्यमंत्री बनने और धमक के साथ सरकार चलाने का तजुर्बा, अपराधियों पर लगाम लगाने का रिकार्ड और दलित अस्मिता की पूंजी है।

इन तीन ताकतवर प्रतिद्वंदियों से मुकाबले के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा के पास प्रदेश कांग्रेस की वह टूटी-फूटी नाव है, जो पिछले तीस साल से रेत में फंसी हुई है और कई खेवनहार आए लेकिन मझधार पार नहीं करा सके। पिछले तीस सालों के दौरान उत्तर प्रदेश कांग्रेस की इस नाव में कई सुराख हो गए हैं और यह नाव नदी में बहने से पहले ही डूबने लगती है। 1989 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की नाव में पहला सुराख विश्वनाथ प्रताप सिंह की बगावत से हुआ। 1991 के विधानसभा चुनावों में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव की सरकार को समर्थन देकर बचाने से दूसरा सुराख हुआ।

1993 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की नैया में भाजपा की राम लहर और सपा-बसपा के गठबंधन से दो सुराख हुए। फिर 1996 के विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर हुए पार्टी के विभाजन से जूझती कांग्रेस ने बसपा के सामने समर्पण गठबंधन करके अपनी नाव के पटरे ही तोड़ दिए। तब राज्य की तत्कालीन 425 विधानसभा सीटों में से 300 सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं उतारे और यहां उसके कार्यकर्ताओं को या तो घर बैठना पड़ा या फिर सपा, बसपा और भाजपा में जाकर अपनी राजनीतिक पिपासा शांत करनी पड़ी। यही हाल उसके समर्थक जनाधार वर्ग का भी हुआ।

2002 और 2007 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अपने प्रदेश नेताओं के झगड़ों में इस कदर उलझी कि उसकी नाव में अनगिनत सुराख हो गए। 2012 का विधानसभा चुनाव राहुल गांधी की कमान में कांग्रेस ने बहुत जुझारू तरीके से लड़ा, लेकिन जिस तरह सिकंदर के सामने पोरस को अपने हाथियों की भगदड़ के कारण हारना पड़ा था, कुछ उसी तरह कांग्रेस के दिग्गजों ने ऐसी भगदड़ मचाई कि राहुल गांधी की तमाम आक्रामकता और मेहनत के बावजूद कांग्रेस की नाव फिर मझधार में डूब गई।

2017 में लगा कि कांग्रेस इस बार नए तरीके से चुनाव लड़ेगी और अगर जीत नहीं सकी तो भी अपनी वापसी प्रभावशाली तरीके से कर सकेगी। जाने-माने रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने चुनावी प्रचार अभियान की कमान संभाली। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर ब्राह्मण वोटों को साधने की रणनीति बनाई गई। राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष और अमेठी के राजा संजय सिंह को चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया। विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी पहले से ही मैदान में थे।

राहुल गांधी की बेहद सफल लखनऊ सभा, सोनिया गांधी वाराणसी के शानदार रोड शो और राहुल की जन सभाओं में उमड़ती भीड़ ने कांग्रेसियों का उत्साह बढ़ाया और दिल्ली में भी माहौल बनने लगा। लेकिन तभी उरी में आतंकवादियों के ठिकानों पर सेना द्वारा की गई पहली सर्जिकल स्ट्राईक ने माहौल बदल दिया। किसानों-नौजवानों के मुद्दे हवा हो गए और सिर्फ और सिर्फ एक ही मुद्दा रहा कि पहली बार आतंकवादियों को सेना ने सबक सिखाया। इस राष्ट्रवादी ज्वार को पहचानने में कांग्रेस और उसके रणनीतिकार नाकामयाब रहे।

उन्होंने सेना की कार्रवाई पर ही सवाल उठाकर खुद को जनता के बीच खलनायक बना डाला और उनके इस घातक कदम ने कांग्रेस की नाव की पतवार ही तोड़ दी। डूबती नाव को बचाने के लिए आनन-फानन में कांग्रेसी नेतृत्व ने बीच चुनाव मैदान से शीला दीक्षित को वापस बुलाया। ’27 साल यूपी बेहाल’ के अपने चुनावी नारे को तिलांजलि दी और अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी से सौ सीटों पाकर समझौता कर लिया। इसके बाद यूपी के दो लड़के बनकर राहुल और अखिलेश साथ-साथ घूमे, लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता ने सपा की साइकिल पंचर कर दी। बसपा के हाथी को बिठा दिया और कांग्रेस के हाथ को तोड़ दिया। पूरे प्रदेश में भाजपा का कमल ही खिलता नजर आया।

अब उत्तर प्रदेश कांग्रेस की वही टूटी-फूटी नाव लेकर उसकी पतवार संभालकर प्रियंका गांधी ने मोर्चा संभाला है। हालांकि प्रियंका को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी 2019 से ही मिल गई थी। लोकसभा चुनाव में उन्होंने आधे राज्य की चुनावी जिम्मेदारी संभाली। इसके बाद पूरे राज्य की प्रभारी बनाई गईं। लेकिन उनकी सक्रियता अब बढ़ी है। हालांकि इसके पहले लोकसभा चुनावों के बाद सोनभद्र में आदिवासियों की जमीन को लेकर हुए हिंसक संघर्ष के मुद्दे पर धरना दिया और हाथरस कांड में उन्होंने अपनी सक्रियता दिखाई। 2020 का पूरा साल कोविड प्रतिबंधों की भेंट चढ़ गया।

लेकिन इस दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने जरूर लगातार जिलों में धरने-प्रदर्शन और गिऱफ्तारियों के जरिए कांग्रेस को सक्रिय बनाए रखा। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और विविधता वाले राज्य में लल्लू की भी सीमाएं हैं, इसलिए अब जब विधानसभा चुनावों एक साल ही है, प्रियंका को खुद आगे आकर कमान संभालनी पड़ी है। किसानों के आंदोलन ने उन्हें लोगों के बीच सीधे पहुंचने का अवसर दिया है और जिसे वह बखूबी इस्तेमाल भी कर रही हैं। सहारनपुर, बिजनौर, बघरा (मुजफ्फरनगर) की उनकी रैलियों को जबर्दस्त कामयाबी मिली है। आगे इस तरह की किसान रैलियां और भी की जानी हैं। इसके साथ ही प्रयागराज में मौनी अमावस्या पर गंगा स्नान और फिर प्रशासन द्वारा निषादों की नावों की खबर सुनकर उनके बीच जाकर प्रियंका अपनी दादी इंदिरा गांधी के रास्ते पर चलती दिखती हैं।

लेकिन जनता से सीधे जुड़ने के उनके इस तरीके का फायदा कांग्रेस को तब मिलेगा, जब उनकी इस मेहनत को जमीन पर पार्टी का संगठन आगे बढ़ाए। इसके लिए प्रदेश कांग्रेस के उन सभी कील कांटों को दुरुस्त करने की जरूरत है, जो अब तक राज्य में पार्टी के विस्तार और विकास में रोड़ा बने हुए हैं। प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू की हालांकि राज्यव्यापी नेता के तौर पर वैसी पहचान नहीं रही
है जैसी कि राज बब्बर, निर्मल खत्री, प्रमोद तिवारी, सलमान खुर्शीद आदि की रही है। लेकिन लल्लू मेहनती और जमीनी हैं और शायद इसीलिए प्रियंका ने न सिर्फ उन्हें प्रदेश की कमान सौंपी बल्कि लल्लू के संघर्ष की तारीफ में अखबारों में लेख भी लिखा।

लेकिन अकेले लल्लू के बस में प्रदेश कांग्रेस की नाव को मझधार से खींच पाना नहीं है। इसके लिए पूरी टीम चाहिए जो प्रियंका के करिश्मे और मेहनत को पूरे प्रदेश में कांग्रेस की हवा में तब्दील कर सके। वरना इस तमाशा पसंद समाज में लोग तमाशा देखने तो खूब आते हैं लेकिन तमाशा दिखाने वाले को घर की चाबी कभी नहीं देते। घर की चाबी उसको ही दी जाती है जिस पर भरोसा होता है और भरोसा तब होता है जब निरंतर संवाद होता रहे। भाजपा की ताकत यही है कि उसके करिश्माई नेता अपने भाषणों से विमर्श गढ़ते हैं और संगठन व दूसरी पांत के नेता और जमीनी कार्यकर्ता उस विमर्श को गांव-गांव, शहर-शहर और घर-घर ले जाते हैं और दूसरे का सच भी झूठ हो जाता है।

इसलिए अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नाव को चुनावी भवसागर के पार उतारना है तो प्रियंका गांधी को अपने साथ सियासी योद्धाओं की मजबूत कतार बनानी होगी। उनके पास कोई एसा चेहरा होना चाहिए जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हिंदुत्व और भगवावेश की आक्रामकता का उसी शैली में मुकाबला कर सके। उनके साथ मायावती की दलित अस्मिता के जवाब में कोई दमकता दलित चेहरा होना जरूरी है और अखिलेश के पिछड़े कार्ड की काट के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय लल्लू के अलावा भी कोई मुखर और पहचान रखने वाला पिछड़ा नेता भी टीम प्रियंका में होना चाहिए। क्योंकि जब तक राज्य के पिछड़े यह जान पाएंगे कि अजय लल्लू पिछड़ों में भी किस वर्ग के हैं, तब तक चुनाव ही हो जाएगा।

किसान आंदोलन ने प्रियंका को जनता के बीच सीधे जुड़ने का मौका दिया है इसलिए उनकी टीम में किसान नेता की छवि वाले किसी नेता को प्रमुखता मिलनी चाहिए। इसी तरह मुसलमानों को वापस कांग्रेस की तरफ लाने के लिए जरूरी है कि सपा के आजम खान और एमआईएम के ओवैसी की तुलना में एक उदारवादी लेकिन जमीनी पकड़ रखने वाले मुस्लिम नेता की भी टीम प्रियंका में जरूरत है। यह सही है कि नाव को चलाने का बहुत कुछ दारोमदार उस मल्लाह पर होता है, जिसके हाथ में पतवार या लग्गी होती है, लेकिन नाव सही तरीके से मझधार को पार करे और किनारे पर लग जाए इसमें उन सबकी भूमिका अहम होती है, जो मल्लाह के साथ पतवार या लग्गी को सहारा देते हैं।

कोई भी टीम तब कामयाब होती है जब सारे खिलाड़ी अपने लिए नहीं टीम के लिए खेलते हैं। भारतीय हॉकी के पतन की शुरुआत तब से ही हुई जब टीम के खिलाड़ियों ने टीम के लिए नहीं अपने-अपने लिए खेलना शुरू किया और भारतीय क्रिकेट तब तक शीर्ष पर नहीं पहुंचा जब तक टीम के खिलाड़ियों ने अपने लिए खेलना छोड़ कर टीम के लिए खेलना शुरू नहीं कर दिया। वैसे प्रियंका और उनके सहयोगियों को एक बार मिलकर लोकप्रिय फिल्म ‘चक दे इंडिया’ जरूर देखनी चाहिए। भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें तमाम भीतरी मतभेदों के बावजूद सारे नेता और कार्यकर्ता टीम भावना से दल के लिए काम करते हैं।

नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा की रैलियों के बाद स्थानीय नेता और कार्यकर्ता घर नहीं बैठ जाते बल्कि उनकी कही बात को लोगों के बीच ले जाते हैं और आगे की तैयारी करते हैं। जबकि कांग्रेसी बरातियों की तरह सज-धज कर सोनिया, राहुल और प्रियंका की रैलियों में भीड़ तो बढ़ाते हैं लेकिन बाद में कुर्ते उतार कर घर बैठ जाते हैं। पार्टी को इस ‘बाराती मानसिकता’ से बाहर निकालना होगा। इसके लिए राजनीतिक कार्यक्रमों घोषणाओं और संगठन की गतिविधियों की सफल और सशक्त निगरानी और फालोअप जरूरी है, जिसके लिए शक्तिशाली और प्रभावशाली समर्पित लोग होने चाहिए।

ये सारे सुराख हैं जो इस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस की नाव में हैं और अगर इन्हें कांग्रेस नेतृत्व और प्रियंका गांधी बंद कर पाती हैं तब ही उनकी नाव चुनाव महासागर में चल पाएगी।

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