मध्यप्रदेश के कुछ गौंड आदिवासियों ने रोटी के लिए गांव छोड़ा और राजधानी भोपाल आ गए। जब यहां भी रोजी नहीं मिली और कुछ न सूझा, तो चित्रकारी के अपने पारंपरिक हुनर के जरिये रोजी जुटाने में जुट गए। पर कोरोना काल में भूखों मरने की स्थिति बन गई। तब एक मददगार ने सोशल मीडिया पर इनकी मदद को गुहार लगाई। तीन महीने में ही आज इनके खाते में लाखों रुपये जमा हो गए हैं।
भोपाल की झुग्गी बस्ती में झोपड़ी में रह रहे इन आदिवासी कलाकारों के भूखों मरने की स्थिति को बयां करने वाले वह ट्वीट और पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हो गए। तब स्थानीय लोगों ने न केवल उनके भोजन-पानी की तत्काल व्यवस्था की, र्आिथक मदद भी जुटाई। यह सिलसिला यहीं नहीं थमा।
आम लोगों ने उनकी चित्रकारी को भी जमकर प्रमोट किया और अंतत: एक स्थाई बाजार दिला दिया। आज इन आदिवासियों की चित्रकारी विदेशी बाजार में भी जा पहुंची है। डिंडौरी के अनिल टेकाम सहित करीब एक दर्जन गौंड आदिवासी परिवार भोपाल में बाणगंगा स्थित झुग्गी बस्ती में रहते हैं। गांव से शहर तो आ गए थे, लेकिन रोजी नहीं थी।
मध्यप्रदेश के कुछ गौंड आदिवासियों ने रोटी के लिए गांव छोड़ा और राजधानी भोपाल आ गए। जब यहां भी रोजी नहीं मिली और कुछ न सूझा, तो चित्रकारी के अपने पारंपरिक हुनर के जरिये रोजी जुटाने में जुट गए। पर कोरोना काल में भूखों मरने की स्थिति बन गई। तब एक मददगार ने सोशल मीडिया पर इनकी मदद को गुहार लगाई। तीन महीने में ही आज इनके खाते में लाखों रुपये जमा हो गए हैं।
भोपाल की झुग्गी बस्ती में झोपड़ी में रह रहे इन आदिवासी कलाकारों के भूखों मरने की स्थिति को बयां करने वाले वह ट्वीट और पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हो गए। तब स्थानीय लोगों ने न केवल उनके भोजन-पानी की तत्काल व्यवस्था की, र्आिथक मदद भी जुटाई। यह सिलसिला यहीं नहीं थमा।
आम लोगों ने उनकी चित्रकारी को भी जमकर प्रमोट किया और अंतत: एक स्थाई बाजार दिला दिया। आज इन आदिवासियों की चित्रकारी विदेशी बाजार में भी जा पहुंची है। डिंडौरी के अनिल टेकाम सहित करीब एक दर्जन गौंड आदिवासी परिवार भोपाल में बाणगंगा स्थित झुग्गी बस्ती में रहते हैं। गांव से शहर तो आ गए थे, लेकिन रोजी नहीं थी।
उन्होंने तत्काल कुछ राशि उनके बैंक खाते में डाल दी। साथ ही, रचना ने सोशल मीडिया पर भी इनकी स्थिति के बारे में टिप्पणी करते हुए मदद की गुहार लगाई। उनका ट्वीट जल्द ही वायरल हो गया। भोपाल के लोगों, संस्थाओं तक भी पहुंचा। स्थानीय लोग तब तत्काल मदद को आगे आए। इस तरह इन परिवारों को तात्कालिक राहत तो मिल गई, लेकिन आगे क्या होता, पर इस भय का भी जनता ने समाधान कर दिया।
भोपाल निवासी समाजसेवी आलोक अग्रवाल ने अपनी साथी चितरूपा के साथ मिलकर आदिवासी कला के लिए बाजार उपलब्ध कराने का जतन किया। इनकी पेंटिंग्स को सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर साझा किया। इसका व्यापक असर हुआ और लोगों ने इसे चारों और फैलाया। कलाकृतियों को देश-विदेश के खरीदार मिलने लगे। इनकी जिन कलाकृतियों के पहले चंद सौ रुपये मिलते थे, आज वही कलाकृतियां हजारों में बिक रही हैं।
उन्होंने तत्काल कुछ राशि उनके बैंक खाते में डाल दी। साथ ही, रचना ने सोशल मीडिया पर भी इनकी स्थिति के बारे में टिप्पणी करते हुए मदद की गुहार लगाई। उनका ट्वीट जल्द ही वायरल हो गया। भोपाल के लोगों, संस्थाओं तक भी पहुंचा। स्थानीय लोग तब तत्काल मदद को आगे आए। इस तरह इन परिवारों को तात्कालिक राहत तो मिल गई, लेकिन आगे क्या होता, पर इस भय का भी जनता ने समाधान कर दिया।
भोपाल निवासी समाजसेवी आलोक अग्रवाल ने अपनी साथी चितरूपा के साथ मिलकर आदिवासी कला के लिए बाजार उपलब्ध कराने का जतन किया। इनकी पेंटिंग्स को सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर साझा किया। इसका व्यापक असर हुआ और लोगों ने इसे चारों और फैलाया। कलाकृतियों को देश-विदेश के खरीदार मिलने लगे। इनकी जिन कलाकृतियों के पहले चंद सौ रुपये मिलते थे, आज वही कलाकृतियां हजारों में बिक रही हैं।