वो घर जो कभी छोड़ आए थे। बरसों पहले। कुछ तलाशने जो जिंदगी के लिए सबसे जरूरी था। पीछे छोड़ आए घर-परिवार, खेत-खलिहान।
न जाने कितने फोन आए। शिकायतें भी…एक बार मुंह तो दिखा जाओ।… ऐसी भी क्या नौकरी? कभी अम्मा की दवाई। कभी बच्चों की पढ़ाई।
छोटी सी कमाई में बचता ही क्या है? सोचा तो कई बार पलट कर कह दूं, मजबूर हूं। पर, होंठ सिल गए। अब तो सब बदल गया। एक दिन हिचकते हुए निकले थे कि शहर में कोई पहचान नहीं। आज सवाल है, गांव में कोई पहचानेगा कि नहीं?
कश्तियां टूट गई हैं सारी, अब दरिया लिए फिरता है हमको…। बाकी सिद्दीकी की ये पंक्तियां बुधवार को राजधानी के कमता चौराहे से गुजरते कामगारों की स्थिति को एक हद तक बयां करती हैं।
भूख की तड़प, किसी अपने की मौत का गम, अंधेरे भविष्य का डर लिए घर की ओर लौटने को बेबस इन कामगारों के चेहरों से बहते पसीने में भी टूटे सपनों का दर्द छलक रहा था।
दो जून की रोटी की खातिर घर छोड़ने वाले इन मेहनतकशों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिंदगी इस कदर खानाबदोश हो जाएगी कि खाने के लिए हाथ फैलाना पड़ेगा।
कोई बिहार से, कोई पंजाब से बसों में भरकर चला आ रहा तो कोई टेंपों में परिवार भरकर हरियाणा से बिहार के लिए निकल पड़ा। कुछ ऐसे भी, जिन्होंने साइकिल से घर की राह पकड़ ली। पेश है मुश्किलों की राह में मंजिल तक पहुंचने की जद्दोजहद करते कामगारों का हाल बयां करती रिपोर्ट।
एक टैंपो में चालक सहित आठ लोग सवार थे। 24 घंटे पहले ये लोग हरियाणा से बिहार के सहरसा जिले के लिए रवाना हुए। रास्ते में एक जगह चावल खाने को मिला।
कमता में इन्हें रोका गया तो सोमनेसा नीचे उतरा। बताया कि गांव में दो दिन पहले पिता की मौत हो गई। खबर मिली तो छटपटा रहे थे, पर कोई जुगाड़ नहीं लगा।
गांव से संदेश आया कि अर्थी को तो कंधा नहीं दे सके, एक बार देख तो जाओ। नम आंखों से युवक ने बताया कि हम तो पहले ही जाना चाहते थे, पर पैसा ही नहीं था। टेंपो चलाते थे वहां। टैंपो मालिक से कहा कि गांव पहुंचकर पैसा देंगे, तब वो टेंपो देने को राजी हुआ। इसके बाद टेंपो से निकल पड़े।
ज्ञानवती पति व बच्चों के साथ सिधौली से आकर कमता बस अड्डे पर बैठी थी। उसे दतिया जाना है। बताया कि दो माह से काम बंद है। जो थोड़ा बहुत पैसा रखा था वह खर्च हो गया।
ठेकेदार से मांगा तो उसने इनकार कर दिया। दो बच्चे हैं, उन्हें लेकर घर जा रहे हैं। वहां बाबू हैं, कम से कम दुत्कारेंगे तो नहीं। वहीं कुछ कामधंधा शुरू करेंगे।
ब्रजेश, जितेंद्र और विक्रम…। कोई इटावा से तो कोई दिल्ली से। किसी को महाराजगंज जाना है, किसी को पटना। रास्ते में एक दूसरे को देखा तो साथ हो लिए।
विक्रम कहता है कि यदि रास्ते में कुछ हो गया, तो कम से कम घर तक खबर तो पहुंच जाएगी। अब साइकिल चलाने की हिम्मत नहीं बची, पर घर तो जाना ही है।
जितेंद्र पत्नी और तीन बच्चों के साथ पैदल ही सिर पर सामान रखे चले आ रहे थे। सभी के सिर पर पोटली थी। तेलीबाग में रहकर मजदूरी करते थे।
कहा, दो महीने तक सरकारी खाने पर जिंदा रह लिए, पर अब हिम्मत जवाब दे गई है। इसलिए अपने घर आजमगढ़ जा रहे हैं। कहा, बच्चे न होते हम पति-पत्नी मर जाते, क्योंकि मेहनत करने वाले हम लोग दान की रोटी कितने दिन खाएंगे।
हरिद्वार से प्राइवेट गाड़ी कर तीन-चार लड़के लखनऊ पहुंचे। विवेक इनमें से एक है। यहां से आगे जाने के लिए बस से जाना होगा, लेकिन उसमें भीड़ देख विवेक की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उसका कहना था कि कोरोना हो गया तो क्या करेंगे। इससे अच्छा है कि हम पैदल चले जाएं।
कंचन कमता बस अड्डे पर बस के इंतजार में खड़ी थीं। लखनऊ पढ़ाई करने आई कंचन का वाराणसी के चंदौली में घर है। पैसा खत्म हो गया और कमरे का किराया देने को भी नहीं रहा।
मकान मालिक से कहा तो उन्होंने मदद से इनकार कर दिया। बताया कि एक महीने से इलाके के दरोगा के पास रोज जाते थे कि किसी तरह घर भेजवा दें। कल उन्होंने बताया कि बसें जा रही हैं, चली जाओ। इसलिए निकल पड़ी।