निर्भया के गुनहगारों को फांसी की सजा का एलान होने के बाद एक बार फिर फांसीघर चर्चा में हैं। आज हम आपको एक ऐसे ही फांसीघर के बारे में बताने जा रहा है जहां फंदे पर लटकने के बाद मौत की बजाय नई जिंदगी मिलती थी। खास बात ये है कि यहां इंसानों को नहीं बल्कि रेल इंजन को फंदे पर लटकाया जाता है।
70 के दशक से बंद पड़ा है
कानपुर रेलवे की संपत्ति यह फांसीघर लोको अस्पताल के पीछे रेलवे की सिविल इंजीनियङ्क्षरग ट्रेनिंग एकेडमी के ठीक बगल में स्थित है। हालांकि यह तकरीबन 70 के दशक से बंद पड़ा है। अब यहां सिर्फ एक टीनशेड व लोहे का स्ट्रक्चर है। थोड़ा बहुत रेल ट्रैक भी दिखाई देता है। रेलवे अधिकारियों के मुताबिक यह स्ट्रक्चर सौ साल से ज्यादा पुराना है।
इंजन को टांगकर की जाती थी कोल कंपार्टमेंट की सफाई
बताया जाता है कि तीन मार्च 1859 को पहली बार मालगाड़ी पत्थर लादकर प्रयागराज से कानपुर के पुराने रेलवे स्टेशन पर पहुंची थी। इसके बाद रेलवे ने यहां पैर जमाने शुरू किए। अनुमान है कि अगले बीस-पच्चीस सालों में ही रेलवे ने फांसीघर का निर्माण किया। हालांकि इसे ये नाम अंग्रेजों ने नहीं बल्कि कर्मचारियों ने दिया। दरअसल उस समय कोयले के स्टीम इंजन चला करते थे। इंजन में ऊपर से कोयला डाला जाता था। इसीलिए कुछ दिनों बाद कोल कंपार्टमेंट की सफाई करनी पड़ती थी। ऐसे में इंजन को यहां लाकर मोटे तारों से ठीक उसी तरह टांगा जाता था जैसे फंदे पर लटकाया जाता है। इंजन के ऊपर उठने के बाद कोल कंपार्टमेंट को साफ किया जाता था।
चार शेड का था फांसीघर
रेलवे का यह फांसीघर काफी बड़ा था। मुख्य शेड अभी भी मौजूद है, लेकिन मशीनें अब नहीं हैं। इसके अलावा अन्य तीन शेड के सिर्फ कुछ निशान ही बाकी हैं।
इनका ये है कहना
रेलवे की इस इमारत का ऐतिहासिक महत्व है। यहां स्टीम इंजन को रिपेयङ्क्षरग के लिए लाया जाता था। चूंकि तब इंजन को लटकाकर साफ किया जाता था, इसलिए इसका नाम फांसीघर पड़ गया।-राहुल चौधरी, चीफ डिपो अफसर
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