कार्तिक मास को प्रकृति वनस्पति और धार्मिक उत्सवों का रत्न कहा जाता है। यह मास दीर्घायु देने वाली वनस्पतियों के सेवन का भी स्वर्णिम अवसर होता है। मान्यता है कि इस मास में और खासकर प्रमुख तिथियों में किया गया दान, धर्म और स्नान सुख, समृद्धि और मोक्ष में सहायक होता है। धार्मिक नगरों में इस मास में विशेष आयोजन होते हैं। ऐसा ही एक उत्सव देवादिदेव भूतभावन महाकाल की नगरी उज्जैन में होता है। कार्तिक बैकुंठ चतुर्दशी के अवसर पर मोक्षपुरी अवंतिका एक परम मंगलमयी आयोजन की साक्षी होती है। अवसर होता है अदभूत, अलौकिक, विलक्षण हरि-हर मिलन का।
बैकुंठ चतुर्दशी को कहा गया है परम मोक्षदायिनी
पुराणों में बैकुंठ चतुर्दशी को परम मोक्षदायिनी कहा गया है। देवर्षि नारद जब मृत्युलोक से भ्रमण कर बैकुंठधाम पधारे तब श्रीहरी ने प्रसन्न होकर उनसे बैकुंठधाम में आने का कारण पूछा। तब महर्षि नारद ने बैकुंठधाम में सामान्यजनों के पहुंचने का उपाय बतलाने का निवेदन किया। तब श्रीहरी ने उनको बैकुंठ चतुर्दशी का व्रत बतलाया।
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बैकुंठ चतुर्दशी के दिन स्वर्ग के द्वारपाल जय-विजय भगवान विष्णु की आज्ञा से बैकुंठधाम का द्वार खुला रखते हैं।इस दिन भगवान विष्णु के स्मरणमात्र से ही बैकुंठधाम में स्थान मिलता है। शास्त्रानुसार बैकुंठ चतुर्दशी को श्रीहरी के साथ कैलाशवासी महादेव की पूजा का भी विधान है।
बैकुंठ चतुर्दशी पर होता है अदभुत हरि-हर मिलन
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की बैकुंठ चतुर्दशी को जब आकाश श्वेत झिलमिलाते तारों से शोभायमान रहता है। असंख्य स्वरूपों से सुसज्जित पुरातननगरी अवंतिकापुरी चांदनी की जगमगाहट से चमचमाती ओढ़नी के परिधान से सुसज्जित रहती है। तब शयनआरती के पश्चात भगवान नीलकंठ महाकालेश्वर शयन न करते हुए श्रीहरी से मिलन को लिए विधि-विधान से पूजन के बाद मंदिर से प्रस्थान करते हैं। भूतभावन महाकाल पालकी में सवार होकर ओम नम: शिवाय के जयकारे, झांझ-मजीरे, और बैंड-बाजे के साथ गोपाल मंदिर श्रीहरी से मिलन के लिए रवाना होते हैं।
मान्यता है कि श्रीहरी शयन में जाने के दौरान संपूर्ण सृष्टि का भार भोलेनाथ को सौंपकर जाते हैं। देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु के जागृत होने पर चतुर्दशी तिथि को श्रीशिव उनको सृष्टि का भार सौंप देते हैं कैलाशपति शिव और श्रीविष्णु दोनों एकदूसरे की अंतरात्मा माने जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है
जनश्रुति के अनुसार पाताललोक के राजा बलि ने जब स्वर्गलोक को जीत लिया था, तब उनको रोकने के लिए देवताओं ने भगवान लक्ष्मीनारायण से प्रार्थना की। तब श्रीहरी ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग धरती की मांग की। दो पग में भगवान विष्णु ने संपूर्ण धरती को नाप लिया और तीसरे पग के लिए राजा बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां पर रखू? राजा बलि ने इसके लिए अपना सिर आगे कर दिया। श्रीहरी राजा बलि के इस त्याग और समर्पण से बेहद प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि को वरदान दिया कि वे चातुर्मास के चार महीने उसके राज्य की पहरेदारी करेंगे।
भाईदूज पर श्रीलक्ष्मीनारायण की पत्नी देवी लक्ष्मी अपने भाई राजा बलि को तिलक लगाकर उनसे भगवान विष्णु को नेग के रूप में मांगती है और भाई बहन को नेग देकर विदा करता है। इस तरह से श्रीहरी अपने धाम लौट आते हे और बैकुंठ चतुर्दशी को श्रीशिव उनको उनकी जिम्मेदारी, राजपाट लौटाने के लिए उनके मंदिर जाकर परंपरा का निर्वाह करते हैं।
मंत्रध्वनि के शास्त्रोक्त स्वरों के बीच गंगाधर महाकालेश्वर पालकी में सवार होकर श्रीहरी के गोपाल मंदिर पहुंचते हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश कर भूतभावन की पालकी गोपाल मंदिर के सभामंडप में जाती है। सभामंडप में मंत्रोच्चार के साथ श्रीकृष्ण श्रीनीलकंठेश्वर का स्वागत करते हैं। इस दौरान संपूर्ण मंदिर परिसर ‘ओम नम: शिवाय’ और ‘श्रीकृष्ण: शरणम मम:’ के कर्णप्रिय भजनों से गुंजायमान रहता है।
कृष्णभक्त सामवेद का संगीतमय सुरगान करते हैं तो शिवभक्त ‘हरिओमतत्सत’ को पंचम स्वर में प्रस्तुत करते हैं। श्रीहरी गर्भगृह से भगवान महाकाल के स्वागत सत्कार के लिए सभामंडप में आते हैं और उनका आत्मीय स्वागत करते हे और कहते हैं कि,
त्वया यदभवं दत्तं तददत्तमखिलं मया।
मत्तो विभिन्नमात्मानं, दृष्टुं नाहर्सि शंकर।।
योSहं सत्वं जगच्चेदं, सदैवासुरमानुषुम।
अविद्या मोहितात्मान: पुरूषा भिन्नदर्शन: ।।
।। विष्णुपुराण।।
जो अभय आपने दिया है वह सब मैने भी दे दिया है। हे शंकर! आप अपने को मुझसे पृथक न देखे। जो मैं हूं, वही आप और देवता, असूर तथा मनुष्यों के सहित यह सारा संसार है। जिन पुरूषों का चित अविद्या से मोहित हो रहा है वे ही भेदभाव को देखने वाले होते हैं।
अब श्रीशिव श्रीहरी से कहते हैं कि
आदिस्तवं सर्वभावनां, मध्यमन्तस्तथा भवान।
त्वत्त: सर्वभभूदविश्वं, त्वयि सर्वं प्रनीयते।।
समस्त भावों के आदि, मध्य और अन्त आप ही हैं। यह समस्त सृष्टि आप ही से उतपन्न हुई है और आप ही मे लीन होती है।
हरि-हर करते हैं एक-दूसरे का आत्मीय स्वागत
श्रीहर के लावलश्कर के साथ पधारे पुजारीगण और गोपाल मंदिर के पुजारीगण सर्वप्रथम श्रीगणेश, पृथ्वी, वरुणदेव, कलश आदि देवी-देवताओं का आह्वान और पूजा करते हैं। उसके बाद रुद्राभिषेक के सोपान में अष्टध्यायी के द्वितीय अध्याय ‘पुरुषसूक्तम’ से भगवान मदमहेश का और पांचवे अध्याय से श्री यदुकुलश्रेष्ठ श्रीकृष्ण का पूजन- अभिषेक करते हैं। धूप,दीप, गंध, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों से दोनों देवताओं का पूजन किया जाता है। फल, पंचमेवा, माखन-मिश्री, मिष्ठान्न आदि का नैवेद्य लगाकर परस्पर स्वातग की परंपरा का निर्वाह किया जाता है।
इस अद्वितीय परंपरा के दौरान भोलेनाथ श्रीकृष्ण को शिवप्रया बिल्वपत्रों की माला समर्पित करते हैं तो श्रीहरी महादेव को विष्णुप्रिया तुलसी की माला समर्पित करते हैं। दोनों देवताओं की आरती उतारने के साथ ही यह हरि-हर मिलन संपन्न हो जाता है। इसके बाद महादेव सृष्टि का राजपाठ श्रीहरी को सौंपकर कैलाश पर्वत तपस्या करने के लिए प्रस्थान कर जाते हैं।
ब्रह्ममुहूर्त में श्रीकृष्ण मिलने जाते हैं महाकाल से
पूर्णिमा की अलसुबह जब भस्मारती के समय ब्रह्ममुहूर्त में श्रीहरी बालमुकुंद स्वरूप पालकी में सवार होकर महाकाल मंदिर के गर्भगृह में पधारते हैं।
यह मिलन भस्मारती में पंचामृत स्नान के बाद होता है, पहले रियासतकाल में गोपाल मंदिर से श्रीकृष्ण पालकी में सवार होकर महाकालेश्वर मंदिर जाते थे, लेकिन यह सिलसिला बंद हो चुका है। अब यह परंपरा महाकाल मंदिर के पुजारियों के द्वारा निभाई जाती है। मान्यता से अनुसार पूर्णिमा की सुबह भगवान श्रीहरी का महाकाल से मिलने जाने का उद्देश पिछले चार महीनों के कामकाज को भलिभांति समझना होता है।