द्रौपदी के स्वयंवर में जाते वक्त ‘श्री कृष्ण’ ने अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि
हे पार्थ तराजू पर पैर संभलकर रखना। संतुलन बराबर रखना, लक्ष्य मछली की आंख पर ही केंद्रित हो, इसका खास ख्याल रखना। अर्जुन ने कहा कि हे प्रभु सब कुछ अगर मुझे ही करना है, तो फिर आप क्या करेंगे?
वासुदेव हंसते हुए बोले, पार्थ जो आप से नहीं होगा वह में करुंगा। पार्थ ने कहा प्रभु ऐसा क्या है- जो मैं नहीं कर सकता? वासुदेव फिर हंसे और बोले, जिस अस्थिर, विचलित, हिलते हुए पानी में तुम मछली का निशाना साधोगे, उस विचलित “पानी” को स्थिर “मैं” रखूंगा!
कहने का तात्पर्य यह है कि आप चाहे कितने ही निपुण क्यूं न हों, कितने ही बुद्धिमान क्यूं न हों, कितने ही महान एवं विवेकपूर्ण क्यूं न हों, लेकिन आप स्वंय हर परिस्थिति के ऊपर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकते हैं।
आप सिर्फ अपना प्रयास कर सकते हैं, लेकिन उसकी भी एक सीमा है और जो उस सीमा से आगे की बागडोर संभलता है उसी का नाम “विधाता” है। उसी विधाता ने आपकी सारी जिम्मेदारियां ले रखी हैं। इसलिए उस पर पूर्ण विश्वास रखें और आगे बढ़ें…
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूं।