केरल में हाल ही में आई भीषण बाढ़ ने क्लाइमेट चेंज और उसके मैनेजमेंट को लेकर कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं. जिस तरह से राज्य में प्रशासन बाढ़ को लेकर लोगों को अलर्ट देने में नाकाम रहा है, उससे यही कहा जा सकता है कि इस तरह की बड़ी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में हमारी तैयारियां अधूरी हैं.
खास बात यह है बार-बार यह बात सामने उठकर आ रही है आखिरकार भारी बारिश की मौसमी भविष्यवाणी के बावजूद इस खतरे लेकर प्रशासन क्यों सोया रहा और जब जागा तो बहुत देर हो चुकी थी.
मौसम विभाग ने अगस्त के पहले हफ्ते से ही केरल के लिए भारी से बहुत भारी बारिश की आशंका जाहिर की थी. ऐसा हुआ भी जब 8 अगस्त से शुरू हुई बारिश अगले 10 दिनों तक तमाम इलाकों में अपना असर दिखा चुकी थी.
इस बार हुई बारिश के आंकड़ों पर नजर डालें तो केरल ही पूरे देश में एक ऐसा राज्य है, जहां पर सामान्य से ज्यादा बारिश हुई है. देश के बाकी हिस्सों में सामान्य से कम बारिश रिकॉर्ड की गई है.
ऐसा नहीं है कि यह केरल में पहली बार हुआ है. इससे पहले भी इस तरह की भारी बारिश केरल में होती रही है, लेकिन पहली दफा ऐसा हुआ है जब भारी संख्या में जानमाल का नुकसान हुआ और कई इलाके पानी में पूरी तरह डूब गए. अब सवाल है कि आखिरकार चूक कहां पर हुई?
पानी की संवैधानिक स्थिति की बात करें तो साफ है भारत में पानी राज्यों का विषय है, लेकिन यह स्थिति इतनी सामान्य नहीं है. भारत के संविधान में पानी को एंट्री नंबर 17 के तहत स्टेट की लिस्ट में रखा गया है. जिसके तहत केंद्र को अंतर्राज्यी नदियों के बारे में अधिकार प्राप्त है, लेकिन यह अधिकार पब्लिक इंटरेस्ट के तहत ही दिया गया है. जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि रेगुलेशन और डेवलपमेंट पब्लिक इंटरेस्ट के तहत ही अंतर्राज्यी नदियों में किया जाना चाहिए.
इसके लिए केंद्र कानून बना सकता है. जिससे केंद्रीय कानून संबंधित नदी के ऊपर अपने रिकॉर्ड को सुनिश्चित कर सकता है, लेकिन संसद ने इस प्रावधान का कभी भी उपयोग नहीं किया है. किसी भी नदी को केंद्र सरकार ने अपने नियंत्रण में लेने के लिए अभी तक कोई कानून नहीं बनाया है.
संविधान की एंट्री 56 के तहत रिवर बोर्ड एक्ट 1956 के तहत अंतर्राज्यी नदियों के लिए रिवर बोर्ड स्थापित करने की बात कही गई है, लेकिन इस कानून के तहत अभी तक ऐसा कोई भी रिवर बोर्ड नहीं बनाया गया है.
इसलिए यह कहा जा सकता है कि रिवर बोर्ड कानून पूरी तरह से मृतप्राय कानून है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोई भी राज्य सरकार यह नहीं चाहती है कि केंद्र सरकार पानी के मामले में दखल दे.
बाढ़ के लिए भविष्यवाणी का यह काम 24 राज्यों के 226 स्टेशनों के लिए दिया जाता है और यहां पर मुख्यत: कितना पानी आएगा, इसकी भविष्यवाणी जारी की जाती है. क्योंकि पानी केंद्र का विषय नहीं है.
लिहाजा किसी भी राज्य को अंतर्राज्यी नदियों के लिए जारी की जाने वाली बाढ़ चेतावनी के लिए सेंट्रल वाटर कमीशन को एक फॉर्मल रिक्वेस्ट देनी पढ़ती है. ऐसा तभी होता है जब संबंधित राज्य नदियों में आ रहे पानी को जानने के लिए दिलचस्पी दिखाता है.
केरल की बात करें तो यहां पर ज्यादातर नदियां वेस्टर्न घाट से निकलती हैं और यह छोटी-छोटी नदियां अरब सागर में समा जाती हैं. इस वजह से यहां पर अंतर्राज्जीय नदियां कम है. केरल में मौजूद मुल्लापेरियार बांध एक अपवाद है. इसको एक अलग कमेटी मॉनिटर करती है.
इन स्थितियों में स्थानीय राजनीति को देखते हुए केरल जैसे राज्य पानी के मामले में केंद्र के दखल को नहीं चाहते हैं. कुछ ऐसा ही केरल के साथ हुआ केरल में कितना पानी नदियों में आया और कितना गया इसकी मॉनिटरिंग का जिम्मा प्रदेश सरकार का है.
केरल में आई बाढ़ के चलते अब यह सवाल अहम हो गया है कि आखिरकार कब तक आम आदमी केंद्र और राज्य की राजनीति में बलि का बकरा बनता रहेगा?
दुनियाभर में क्लाइमेट चेंज के खतरों को देखते हुए अब यह जरूरी है कि राज्य सरकारें राजनीति छोड़ आपस में कंधे-से-कंधा मिलाकर केंद्र के साथ प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए नीति बनाएं. साथ ही बाढ़ भविष्यवाणी केंद्रों के एकीकरण और आधुनिकीकरण पर जोर लगाएं, नहीं तो केरल के बाद और राज्य इसका शिकार बनते रहेंगे.