सऊदी अरब का परमाणु सपना और अमेरिका की परेशानी....

सऊदी अरब का परमाणु सपना और अमेरिका की परेशानी….

सऊदी अरब अपने रेगिस्तान में दो बड़े परमाणु रिएक्टर बनाना चाहता है। इस वजह से कई बड़े देश अपनी कंपनियों को करोड़ों डॉलर का ये कॉन्ट्रैक्ट दिलाने की होड़ में उलझ गए हैं।सऊदी अरब का परमाणु सपना और अमेरिका की परेशानी....

अमरीका उन देशों में से एक है जो परमाणु योजनाओं में सऊदी अरब का मुख्य सहयोगी बनना चाहता है। लेकिन उसके रास्ते में एक अड़चन ये है कि सऊदी अरब परमाणु हथियारों के बढ़ाने को लेकर लगाई जा रही बंदिशों को मानने से इनकार करता रहा है।

इस वजह से डोनल्ड ट्रंप प्रशासन के लिए एक असहज स्थिति पैदा हो गई है जो परमाणु गतिविधियों को लेकर ईरान जैसे देश के खिलाफ सख्त रवैया अपनाए हुए हैं। उम्मीद की जा रही है कि सऊदी अरब आने वाले हफ्तों में इस योजना के लिए उम्मीदवार देशों की कंपनियों के नामों की घोषणा करेगा।

सुरक्षा या कॉन्ट्रैक्ट? 

इनमें अमरीका के सहयोगी जैसे दक्षिण कोरिया और फ्रांस भी शामिल हैं। हालांकि जिन देशों की कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट मिलने की उम्मीद ज्यादा है, उनमें चीन और रूस आगे हैं और जिन्हें अमरीका अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता है।

अमरीका की तकनीकी दक्षता की वजह से वो इस काम के लिए एक बेहतरीन उम्मीदवार है। तेल का सबसे बड़ा निर्यातक देश सऊदी अरब इसके जरिए ऊर्जा के लिए तेल पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता है। इसके अलावा जानकारों का मानना है कि सऊदी अरब के सामने उसके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी देश ईरान के परमाणु कार्यक्रम का मुद्दा है।

परमाणु सुरक्षा नियम

सऊदी अरब को लगता है कि परमाणु रिएक्टरों के जरिए वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी इज्जत बढ़ा सकता है। लेकिन एक तथ्य ये भी है कि चीन और रूस के साथ सऊदी के अच्छे व्यापारिक संबंध हैं और वे सऊदी को अमरीका से कम शर्तों पर परमाणु कार्यक्रमों में सहयोग दे सकते हैं।

खुद को मुकाबले में बनाए रखने के लिए अमरीका को अपने परमाणु सुरक्षा नियमों में थोड़ी ढील देने की जरूरत है। ये डील अमरीका की मर रही परमाणु रिएक्टर इंडस्ट्री को फिर से जिंदा करने के लिए एक अच्छा कदम साबित हो सकती है। खासकर उस सूरत में जब पिछले साल ही अमरीका की परमाणु कंपनी वेस्टिंगहाउस बर्बाद हो गई थी।

अमरीका की दिक्कत

लेकिन अगर अमरीका इस ठेके के लिए अपने नियमों में ढील देता है तो ये परमाणु गतिविधियों को बढ़ाए जाने के खिलाफ उसकी प्रतिबद्धता को भी खतरे में डाल देगा। कुछ जानकार अमरीका के इस प्रोजेक्ट में शामिल होने पर सवाल तो उठाते हैं।

लेकिन साथ ही वे ये मानते हैं कि अमरीका का इस प्रोजेक्ट से जुड़ना ज्यादा फायदेमंद है बजाय इसके कि कोई और देश ये हासिल कर ले जो अमरीका का सहयोगी नहीं है।

ट्रंप प्रशासन में परमाणु अप्रसार और हथियार नियंत्रण विभाग के पूर्व सलाहकार रॉबर्ट आइनहोर्न ने वॉशिंगटन पोस्ट अखबार से कहा, “मैं सऊदी अरब में रूस या चीन की बजाय अमरीका के परमाणु रिएक्टरों से जुड़ना ज्यादा पसंद करूंगा।”

क्या है एग्रीमेंट 123

वॉशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी में खाड़ी और ऊर्जा नीति कार्यक्रम के निदेशक साइमन हेंडरसन कहते हैं, “सऊदी अरब को बंदिशों को मानना ही होगा वरना संसद इस डील पर रोक लगा देगी।”

हेंडरसन ने याद दिलाया कि अमरीका के सांसदों की किसी भी देश के साथ होने वाले परमाणु समझौतों पर सहमति आवश्यक होती है। इस नियम के तहत ये भी बताया गया है कि क्या तकनीक बेची जा सकती है और उसका क्या इस्तेमाल हो सकता है।

अब तक अमरीका ने इस तरह के 20 से ज्यादा समझौते किए हैं जिन्हें ‘एग्रीमेंट 123’ के नाम से जाना जाता है। इसमें ये भी शामिल है कि किस देश पर किस स्तर की पाबंदियां होंगी।

यूएई से करार

इनमें वो समझौता भी शामिल है जो 2009 में संयुक्त अरब अमीरात के साथ किया गया था जिसमें यूएई पर यूरेनियम संवर्धन और उसकी रिप्रोसेसिंग पर पाबंदी लगी थी।

इसकी मदद से प्लूटोनियम बनाया जाता है जो परमाणु हथियार बनाने के लिए इस्तेमाल होता है। इस समझौते को ‘गोल्डन स्टैंडर्ड’ के नाम से जाना जाता है जो अमरीका के सबसे सख़्त समझौतों में से एक है। 

इसे दूसरे देशों के साथ किए जाने वाले समझौतों के लिए एक मॉडल माना जाता है। लेकिन सऊदी अरब ने इन मांगों के मानने से हमेशा इनकार किया है।

सऊदी अरब इस बात पर जोर देता है कि उसके परमाणु कार्यक्रम का उद्देश्य शांतिपूर्ण है और इसलिए वह यूरेनियम बढ़ाने के अपने अधिकार का बचाव करता है क्योंकि परमाणु तकनीक का इस्तेमाल सैन्य गतिविधियों के लिए नहीं हो रहा।

ईरान के साथ तुलना

खुद को जायज ठहराने के लिए सऊदी अरब उस समझौते का सहारा लेता है जो अमरीका ने उसके प्रतिद्वंद्वी देश ईरान के साथ 2015 में किया था। 

सऊदी के विदेश मंत्री अदेल अल जुबैर ने अमरीकी चैनल सीएनबीसी से कहा ,”हमारा मकसद है कि हमें भी दूसरे देशों जैसे ही अधिकार मिलें।” इस समझौते के बाद और आर्थिक पाबंदियों को हटाने के बदले में ईरान ने परमाणु क्षेत्र में अपनी कुछ गतिविधियों को कम कर लिया था। 

हालांकि फिर भी ईरान सख़्त सीमाओं में रहते हुए और अंतरराष्ट्रीय जांचों के बीच अपना यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम चलाने में कामयाब रहा है। ये समझौता जो बराक ओबामा प्रशासन के दौरान हुआ था, उसे अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इतिहास में सबसे ख़राब समझौता मानते हैं।

‘हथियारों के लिए लग जाएगी होड़’

सऊदी योजना पर शक
हेंडरसन के मुताबिक़ इस समझौते में ख़राबी ये है कि ये ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को वैध कर देता है और दूसरे देशों को भी उकसाता है कि वो भी ईरान की बराबरी करें। कई जानकार सऊदी के अपने यूरेनियम को बढ़ाने की क्षमता पर जोर देने को चेतावनी की तरह देखते हैं।

सेन होजे स्टेट यूनिवर्सिटी की राजनीतिक विज्ञान की प्रोफेसर कार्तिक शशिकुमार ने बीबीसी को बताया, “ये नहीं पता है कि सऊदी अरब परमाणु हथियार बना सकता है या नहीं, लेकिन यूरेनियम संवर्धन की क्षमता के साथ भी ऐसा करना आसान नहीं है।”

उन्होंने कहा कि चाहे सऊदी खुद हथियार ना बनाए, लेकिन उसके हथियार बनाने की योजना को लेकर शक से भी क्षेत्र में हथियारों की होड़ शुरू हो जाएगी।

अमरीका का कड़ा रुख

लेकिन डोनल्ड ट्रंप सऊदी के साथ रिएक्टर बनाने के लिए परमाणु सहयोग को कैसे जायज ठहरा पाएंगे जबकि ईरान के कथित ‘शांतिपूर्ण’ परमाणु कार्यक्रमों पर अमरीका कट्टर रूख अपनाए हुए है।

शशिकुमार के मुताबिक अमरीकी सरकार अपनी जियोपॉलिटिकल स्ट्रैटेजी (भू-राजनीतिक रणनीति) के तहत अलग-अलग देशों के साथ अलग तरह से बर्ताव करती है जैसे कि भारत जहां कम मुश्किल समझौते किए गए हैं।

वो कहते हैं, “मेरे ख्याल से अमरीका को लगता है कि सऊदी से उसके हितों को कम ख़तरा है और इसलिए उसने आगे बढ़कर अमरीकी कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट दिलाने में मदद करने का फैसला किया।”

दोनों देशों के परमाणु कार्यक्रमों में क्या अंतर है जिससे अमरीका सऊदी के लिए अपने स्टैंड को जायज ठहरा सके, ये पूछने पर वॉशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी के जानकार हेंडरसन कहते हैं कि ज्यादा अंतर नहीं हैं, कुछ लोग ईरान को खलनायक ठहराएंगे और सऊदी अरब को नहीं।

‘हथियारों के लिए लग जाएगी होड़’

एक और अहम बात ये है कि संयुक्त अरब अमीरात के साथ हुए समझौते ‘गोल्डन स्टैंडर्ड’ में साफ तौर पर कहा गया है कि अगर अमरीका अपनी परमाणु तकनीक कम शर्तों पर मध्यपूर्व क्षेत्र के किसी और देश को बेचता है तो यूएई अपने स्टैंड पर फिर से विचार कर सकता है।

इसलिए, आलोचकों का मानना है कि अगर अमरीका और सऊदी के बीच मांगें कम होती हैं तो ये एक खतरनाक मिसाल साबित होगी और हालिया दशकों में पहली बार अमरीका का अपनी परमाणु नीति से हटना होगा।

लेकिन इस सबसे ज्यादा, ऐसा होने की वजह से क्षेत्र के बाकी देश भी परमाणु तकनीक अपनाने की कोशिश कर सकते हैं और इससे संकट पैदा होगा। शशिकुमार के मुताबिक ये क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय स्थिरता के लिए बड़ा खतरा है।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि एक समझौता किया जा सकता है जहां यूएई के साथ किए गए समझौते के स्तर की पाबंदी ना हो, लेकिन विश्व सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

संबंध और तनाव

आइनहोर्न का कहना है कि हमें कोशिश करनी चाहिए कि यूरेनियम संवर्धन और रिप्रोसेसिंग पर बंदिश हो और साथ ही 20 से 25 साल तक की रोक भी हो। कुछ लोग मानते हैं कि इससे दिक्कत टल तो सकती है, लेकिन समस्या का हल नहीं निकलेगा।

नॉन प्रोलिफरेशन पॉलिसी (परमाणु अप्रसार नीति) एजुकेशन सेंटर के कार्यकारी निदेशक हेनरी सोकोलस्की ने बीबीसी मुंडो को बताया, “हम उस बात के लिए ‘बाद में’ कह रहे हैं जिसके लिए हमें ‘ना’ कहना चाहिए।”

ये दो रिएक्टर उस परियोजना का हिस्सा हैं जिसके तहत सऊदी अगले 20-25 साल में 16 रिएक्टर बनाने की तैयारी में है। इस साल के अंत तक अंतिम निर्णय होने की संभावना है, लेकिन वो कोई सामान्य व्यापारिक फैसला नहीं होगा। इसका नतीजा शक्तिशाली देशों के बीच भू-राजनीतिक स्तर पर संबंधों और तनावों की दशा को दिखाएगा।

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