3500 साल पुराने ताम्र पाषाणिक काल के साक्ष्य उत्खनन में मिले: यूपी

जलमग्न का संकट झेलने के बावजूद बभनियांव का उत्खनन दिन-पर-दिन अपने अतीत में प्रवेश करता जा रहा है। गुप्त, शुंग व कुषाण की सांस्कृतिक अवशेषों के बाद अब रविवार को 3500 साल पुरानी कृष्ण-लोहित मृदभांड वाली ताम्र पाषाणिक संस्कृति के साक्ष्यों का पता चला है।

बीएचयू के पुराविदों द्वारा पांच मीटर की गहराई वाले स्थल पर महज 40 सेमी तक खोदाई करने पर ही पशुओं की जीवाश्मीकृत हड्डियां, दांत के अवशेष, रीड मार्क, मृणमंडल व काले-लाल बर्तनों के टूकड़े मिलने लगे।

वहीं पकी ईंट के अवशेष न मिलने से यह ताम्र पाषाणिक संस्कृति की पुष्टि कर रहा है। सोमवार को बभनियाव में शुम्भकाल का मसाला पीसने वाला लोढा और लोहे का एक हथियार मिलने के बाद टीम का हौसला और भी बढ़ा है।

उत्खनन दल के सह निदेशक प्रो. अशोक कुमार सिंह ने इन पुरावशेषों का आकलन कर बताया कि यहां पर घासफूस के मकान में लोग रहते थे। मुख्य रूप से ग्रामीण बसावट का संकेत मिल रहा है। आधार युक्त कटोरे सहित कृष्ण लेपित मिट्टी के बर्तन भी यहां से मिले हैं। प्रो. सिंह ने कहा कि मिट्टी गीली होने की वजह से कार्बन डेटिंग अभी संभव नहीं है। बावजूद इसके यहां से मिले अवशेष पूर्व वैदिक काल की पुष्टि कर रहे हैं।

टीले पर सर्वेक्षण के दौरान पुराविदों को दो हजार साल पुराना तांबे का सिक्का भी मिला है। यह कुषाण कालीन सिक्का है। हालांकि गांव के लोग सोना समझ एक बार तेजी से दौड़े, लेकिन पुराविदों ने उन्हें हाथ में देकर मौके पर ही इसके तांबा होने की पुष्टि कर दी।

ताम्र पाषाणिक काल में मिट्टी के बर्तनों को पकाने की एक विशिष्ट पद्धति थी। आवें में बर्तनों को इस प्रकार रखा जाता था कि आग व धुएं की एकसमान ऊष्मा उस पर पड़े।

बर्तन के बाहरी हिस्से को आग द्वारा व भीतर वाला भाग को धुएं से पकाया जाता था। इनवर्टेड फायङ्क्षरग के नाम से जानी जाने वाली इस विधि में आंच को इतना नियंत्रित रखते थे कि बर्तन का भीतरी हिस्सा काला व बाहरी लाल हो जाता था।

इसलिए इसे कृष्ण-लोहित मृदभांड परंपरा कहा जाता है। यह विधि आज भी किसी कुम्हार के पास नहीं हैं। उस काल में बर्तन बनाने की तकनीकी दक्षता का यह उत्कृष्ट उदाहरण है।

बभनियांव में फसलों के भीतर शुंग-कुषाण से पहले के बौद्ध काल के भी प्रमाण होने के संकेत हैं, लेकिन पकी फसल के कारण खेतों को नुकसान न पहुंचे, इसलिए पांच मीटर की गहराई में खोदाई के लिए ट्रेंच तैयार किया गया। वहीं जलमग्न गड्ढों से पानी निकाला गया है, लेकिन अब उत्खनन का काम वहां नहीं हो पाएगा।

बीरबल साहनी पुरा वानस्पतिक संस्थान के वैज्ञानिक डा. अनिल कुमार पोखरिया मार्च के अंत में यहां से जले हुए अनाज के दाने जुटाकर इसका विश्लेषण करेंगे। इससे उस काल में किन-किन अनाजों की खेती यहां की जाती थी, कृषि अर्थव्यवस्था सहित मिश्रित फसलों व जंगली प्रजाति के अनाजों का पता चलेगा।

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