बालाकोट में जिस तरह भारतीय वायुसेना ने घुसकर आतंकी शिविर को निशाना बनाकर मुजाहिदीनों को खत्म किया है, उसकी देश और दुनिया में तारीफ हो रही है। मगर, क्या आपको पता है कि यह दूसरा मौका है, जब बालाकोट को निशाना बनाया गया है। आज से 188 साल पहले भी यहां जिहादियों की फौज जमा हो रही थी, जिसे 1831 में भारतीय सिख सैनिकों ने खत्म कर दिया था।
आतंकियों की मंशा कश्मीर पर कब्जा करने की थी। तब अवध राज्य में आने वाले रायबरेली के दो इस्लामिक उपदेशक और उनके अनुयायी इस्लामिक स्टेट का शासन स्थापित करने के लिए खैबर पख्तूनख्वा में पहुंचे थे। वे वहां के पठानों को जिहाद में शामिल करना चाहते थे। दो उपदेशकों में एक रायबरेली का सैयद अहमद था, जो 1826 में अपने साथियों के साथ पेशावर पहुंचा था।
हालांकि, उस समय कितने जिहादियों को मारा गया था, यह विवाद का विषय है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 300 आतंकियों को मारा गया था, जबकि कुछ लोग चरमपंथियों की संख्या 1300 थी। जिहादियों के लिए यह जगह पवित्र जगह बन गई थी। लिहाजा, बालाकोट को मसूद अजहर ने जैश-ए-मोहम्मद का ट्रेनिंग कैंप बनाने के लिए चुना। मगर, इतिहास ने एक बार फिर से खुद को दोहराया और भारतीय वायुसेना के हमले में 350 से अधिक आतंकी मारे गए हैं। तब भी मुजाहिदीनों को स्थानीय लोगों की मदद नहीं मिली थी।
कहा जाता है कि उस दिन एक अजीब घटना हुई, जब एक जिहादी को लाल रंग के कपड़ों मे हूर दिखाई थी। वह नीचे की तरफ सिखों के शिविर के लिए भागने लगा, ताकि हूर से मिल सके। इसके बाद सिखों ने जिहादियों को मौत की नींद सुला दिया। इस लड़ाई में दोनों इस्लामिक नेताओं की भी मौत हो गई और उसमें से एक का सिर विजेता सिख सैनिक काटकर ले गए। यह भी एक संयोग मात्र है कि इस बार भी जिहादियों को मौत की नींद सुलाने वाला अभियान एक सिख (एयर चीफ मार्शल बीएस धनोवा) ने अंजाम दिया।