संसाधनों के कुशल आवंटन और उसके असरदार नतीजे के लिए एक सक्षम ढांचे को बनाने की जरूरत

 देश के सभी सार्वजनिक उपक्रमों का सालाना घाटा 30 हजार करोड़ रुपये हैं। इतनी बड़ी रकम से देश के हर बच्चे को नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराई जा सकती थी या फिर हर व्यक्ति के स्वास्थ्य की फिक्र की जा सकती थी या फिर लोगों के दो जून की रोटी की सुध आसानी से ली जा सकती है। सफेद हाथी बने हमारे सार्वजनिक उपक्रमों में संरचनात्मक कमियां हैं। इसके मालिक यानी सरकार के पास न तो कारोबार की विशेषज्ञता है और न ही कोई प्रेरणा है। सार्वजनिक कंपनियां जब तक मौजूद हैं तब तक तो खजाना सरीखी होती हैं, लेकिन बाद में वे सबकुछ हजम करने लगती है। ज्यादातर अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हैं और सरकारी खैरात पर जिंदा रहती हैं। इनमें से कुछ तो किसी की सेवा नहीं करती हैं। कोई उत्पाद नहीं बनाती हैं। निजीकरण इनका सही इलाज बताया गया लेकिन नेहरू के समाजवादी मॉडल में इनका क्रियान्वयन सही नहीं किया जा सका।

देश के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पांच उद्यमों से इसकी शुरुआत की, लेकिन लोकप्रियता और नौकरशाही ने अच्छे विचार को कुंद कर दिया। नेहरू के बाद आए ज्यादातर प्रधानमंत्रियों में सरकारी कंपनियों का इलाज ईमानदारी से नहीं कर सके। सबने ‘जो है जैसा चल रहा है’ को ही अपनाया और प्रोत्साहित किया। अगर सरकारों पर सरकारी उद्यमों को ‘जहर की गोली’ देने का आरोप लगाया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि उनके सफेद हाथी बनने और खरीदार न मिलने का वे सिर्फ रोना रोते रहे। एयर इंडिया और एमटीएनएल इसके अच्छे उदाहरण हैं। फेहरिस्त तो लंबी है।

पीएसयू (सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयां) सिस्टम ने बेहतर प्रतिभाएं दीं जिसने मैन्युफैक्चरिंग उद्योग को फलने-फूलने में मदद की। यही नहीं, अपने कंधों पर औरों का भार भी ढोया। विनिवेश विशुद्ध भारतीय प्रक्रिया है। पिछले तीन दशक में कई सरकारों ने अपनी हिस्सेदारी बेची, इनमें से ज्यादातर बही-खातों को संतुलित करने वाला बजटीय प्रक्रिया ही साबित हुई। रक्षा, मुद्रा, परमाणु ऊर्जा जैसे रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर सभी क्षेत्रों के सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण में ही भलाई है। मतदाता भी इस कदम का स्वागत ही करेंगे। प्रतिरोध उनकी तरफ से ही आएगा जिन्हें मुफ्तखोरी की आदत लग चुकी है। ऐसे में सरकार की तरफ से सरकारी उद्यम से नियंत्रण छोड़ने और उन्हें स्वायत्ता देने के लिए एक समेकित योजना लाए जाने की जरूरत है।

निजीकरण का मतलब सरकारी की बहुत अहम और बड़ी भूमिका है। उपभोक्ता के हितों के संरक्षण के साथ कर्मचारियों के हितों और कल्याण को बरकरार रखना होता है। इसमें मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्योंगों को भी पोषित करने की बात छिपी है तो बड़े कारपोरेट को भी मदद की आस होती है। निजीकरण का मूल सिद्धांत कुशलता में सुधार करना है। नौकरशाही के प्रतिकूल निजी क्षेत्र ऐसी तमाम स्थितियों को प्रभावी तरीके से निपटाता है। आपसी सहयोग, बातचीत, निजी तौर पर इंसेंटिव आदि द्वारा वह अधिक कुशल समाधान निकालता है। अध्ययन बताते हैं कि यूटिलिटी क्षेत्र (बिजली और पानी) में किए गए निजीकरण का लाभ बहुत सीमित रहा है। इस संदर्भ में भारत का अनुभव मिला-जुला रहा है। सरकारी सेवाओं के निजीकरण ने असर डाला दिखाया है। हालांकि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रक्रिया का अनुभव अवमूल्यन वाला ही साबित हुआ है।

अब जब हमारे प्रधानमंत्री संसाधनों के कुशल आवंटन और उसके असरदार नतीजे की बात कर रहे हैं तो इस कदम को उठाने के लिए उन्हें एक सक्षम ढांचे को बनाने की जरूरत है। इसमें प्रशासनिक और न्यायिक सुधार प्रमुख हैं। निजीकरण को बढ़ावा देने वाले लोगों की सुरक्षा की जाए। अच्छी मंशा के साथ उठाए उनके कदमों के लिए दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए। स्वतंत्रता और संरक्षण से ही देश की नौकरशाही में जान आएगी कि वे प्रधानमंत्री के विजन को लागू कर सकें। पूरी प्रक्रिया विश्वसनीय हो, पारदर्शी हो, इसके लिए जरूरी ढांचे में सभी प्रविधान होने चाहिए। निजीकरण से ज्यादा से ज्यादा राजस्व संग्रह की मंशा की अपेक्षा संसाधनों का प्रभावी आवागमन और इस्तेमाल सुनिश्चित होना चाहिए।

रिवर्स नीलामी और निविदा युद्ध सरकार को ज्यादा राजस्व तो दिला सकती है, लेकिन बेहतर समाधान तो उपयुक्त निविदा धारक को खोजना साबित होगा। अगर कोई कंपनी अपेक्षित रूप से नहीं बिक पाई तो इससे जुड़े कई अंशधारकों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। नीति-नियंताओं को लालच में नहीं आना चाहिए जिससे कि समाधान ही समस्या बन जाए। सरकारी निवेश में आर्थिक गुणन की खूबी होती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वच्छ भारत, तकनीक जैसे क्षेत्र सरकारी निवेश से न सिर्फ आर्थिक रूप से वृद्धि करते हैं बल्कि सामाजिक रूप से कई गुना अधिक कुलांचे भरते हैं।

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