शास्त्रों में लिखा है कि श्राद्ध के सोलह दिनों में पितृ हमारे घर में विराजमान होते हैं। उनकी आत्मा की शांति के लिए तर्पण समेत विभिन्न कर्म किए जाते हैं। इसे प्रसन्न होकर पितृ सुख-शांति-समृद्धि प्रदान करते हैं।
तर्पण या पितरों के लिए किए जाने वाले कर्मकांडों के लिए कुछ बातों पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता होता है। ऐसी ही एक बात है केतकी के फूल को लेकर। कहा जाता है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी भी तरह की पूजा में इस फूल का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जानिए ऐसा क्यों है-
सीता ने दिया था श्राप
वाल्मिकी रामायण में प्रसंग है कि वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम (बिहार) पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए राम और लक्ष्मण नगर में गए।
माता सीता फल्गू नदी के किनारे प्रतीक्षा कर रही थीं। राम-लक्ष्मण को काफी देर हो गई। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था। तभी दोपहर के समय स्वर्गीय राजा दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग लिया।
कोई विकल्प ने देख सीताजी ने फल्गू नदी के किनारे वटवृक्ष के नीचे केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर दशरथ के निमित्त पिंडदान कर दिया। जब राम और लक्ष्मण लौटे तो सीताजी ने बताया कि उन्होंने पिंडदान कर दिया। राम ने पूछा, बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है।
उन्होंने सीता से सबूत मांग लिया। तब सीताजी ने कहा कि फल्गू नदी की रेत, केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। जब भगवान राम ने पूछा तो फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल, तीनों मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही।
तब सीताजी ने दशरथजी का ध्यान कर उनसे गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथजी ने माता सीता की प्रार्थना स्वीकार की और बताया कि उन्होंने पिंडदान दिया है। इस पर राम आश्वस्त हुए। लेकिन तीनों गवाहों के झूठ से सीताजी ने गुस्सा आ गया।
उन्होंने श्राप दिया कि फल्गू नदी सिर्फ नाम की नदी रहेगी, इसमें पानी नहीं रहेगा। इसलिए आज भी यह नदी अधिकांश समय सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढ़ाया जाएगा। यही कारण है कि इस फूल को श्राद्ध में इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
शिवजी को भी पसंद नहीं केतकी का फूल
भगवान शिव को भी केतकी फूल पसंद नहीं है। इसकी पीछे की कहानी यह है कि एक बार ब्रह्माजी और विष्णुजी में बहस छिड़ गई कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। शिव पुराण के मुताबिक, एक ने कहा, मैंने इस सृष्टि का निर्माण किया, वहीं दूसरे का कहना था कि मैं पालनहार हूं।
तय हुआ कि भगवान शिव ही इसका निर्णय करेंगे। भगवान शिव ने विशालकाय ज्योति लिंग प्रकट किया और कहा कि जो पहले इसके दूसरे हिस्से पर पहुंच जाएगा, वो बड़ा होगा। ब्रह्मा और विष्णु, दोनों चल पड़े, लेकिन दोनों में से किसी को ज्योतिर्लिंग के आदि अंत का पता नहीं चला।
थक-हारकर भगवान विष्णु ने मान लिया कि वे ज्योतिर्लिंग के दूसरे छोर का पता नहीं लगा पाए, लेकिन ब्रह्माजी ने झूठ बोल दिया कि वे अपनी मंजिल तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं।
सबूत के तौर पर उन्होंने केतकी फूल की गवाही दिलाई, लेकिन भगवान शिव को तो सब पता था। वे केतकी फूल के झूठ से इतना गुस्सा हो गए कि उसे त्याग दिया। यही कारण है कि शिवजी को भी यह फूल नहीं चढ़ाया जाता है।