शिवपाल यादव के समाजवादी सेकुलर मोर्चा बनाने और सपा के उपेक्षित लोगों को जोड़ने के साथ छोटे-छोटे दलों को भी इसमें शामिल करने के एलान से प्रदेश में सियासी पारा अचानक चढ़ गया है। दरअसल, शिवपाल को यह अहसास हो गया है कि समाजवादी कुनबे में अब सुलह-समझौते की गुंजाइश नहीं रह गई है। सियासी सुरक्षा के लिए उन्हें कोई न कोई रास्ता चुनना ही पड़ेगा। इसीलिए उन्होंने सेकुलर मोर्चा को मजबूत करने का एलान कर सियासी दांव चला है। साथ ही सपा-बसपा गठबंधन से बन रहे वोट का गणित बिगाड़ने का संदेश देकर दबाव बनाने की भी कोशिश की है।
वैसे शिवपाल ने जब पिछले वर्ष 5 मई को मोर्चा के गठन का एलान किया था तब भी हलचल हुई थी। पर, बाद में समय के साथ इसकी चर्चा ठंडी पड़ गई। इस बीच, उनके नजदीकी फरहत अली ने इस मोर्चे का औपचारिक गठन किया। मगर, बुधवार को शिवपाल ने इसे मजबूत बनाने का एलान कर एक तरह से इसकी कमान खुद संभाल ली। उनके इस कदम के पीछे एक वजह मुलायम सिंह यादव का रुख भी नजर आ रहा है।
शिवपाल ने पिछले वर्ष जब सेकुलर मोर्चा बनाने का एलान किया तो बाद में मुलायम सिंह ने हस्तक्षेप व समझौते का संकेत देकर मामला ठंडा कर दिया था। मुलायम ने शिवपाल को पार्टी में सम्मानजक समायोजन का भरोसा भी दिलाया था। राष्ट्रीय महासचिव बनाने की बात थी। शिवपाल शांत रहे।
यहां तक कि वह उन प्रो. रामगोपाल यादव के जन्मदिन पर बधाई देने भी गए जिन्हें 2016 में शिवपाल की मंत्रिमंडल से बर्खास्तगी का सूत्रधार माना गया था। पर, डेढ़ साल से अधिक तक इंतजार के बावजूद जब शिवपाल को दिए गए आश्वासन पूरे नहीं हुए तो उनका धैर्य टूट गया।
इसलिए इस समय किया एलान
आखिर शिवपाल ने इस समय ही यह तेवर क्यों दिखाए? वरिष्ठ पत्रकार रतनमणि लाल कहते हैं- इसकी डोर बीते एक सप्ताह में घटे राजनीतिक घटनाक्रम से जुड़ी दिखती है। मुलायम सिंह का पूर्व मंत्री भगवती सिंह के जन्मदिन पर यह कहना कि ‘अब कोई उनका सम्मान नहीं करता। शायद मरने के बाद करें’ शिवपाल को लगा होगा कि जब नेताजी का ही सम्मान नहीं हो रहा है तो उनका क्या होगा।
इधर अमर सिंह ने जिस तरह सपा को नमाजवादी पार्टी बताया और यह रहस्योद्घाटन भी किया कि शिवपाल भाजपा में जाते-जाते रह गए थे, उससे शिवपाल के लिए ऐसा कदम उठाना जरूरी हो गया था ताकि यह संदेश जाए कि उनका भी सियासी वजूद है। सेकुलर मोर्चे को मजबूत बनाने का एलान प्रदेश की सियासत में नए समीकरणों की आहट देने वाला है।
शिवपाल ने एक तरह से यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह सियासी तौर पर अपना खेल भले न बना पाएं लेकिन अपनी पर आ गए तो दूसरों का खासतौर से भाजपा विरोधी गठबंधन एवं अखिलेश यादव का खेल जरूर बिगाड़ देंगे। मौजूदा हालात में लाल की बात सही लगती है।
यह भी लग रही वजह
शिवपाल ने परिवार को एकजुट करने की इच्छा भी जताई है। ताजा घटनाक्रम से साफ पता चलता है कि ऐसा कहकर उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह परिवार को नहीं तोड़ना चाहते लेकिन मजबूर हैं। इससे उनके प्रति जन सहानुभूति बनी रहेगी। रही बात भाजपा में न जाने के उनके एलान की तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह भले ही भाजपा में न जाएं लेकिन मोर्चा के जरिये उसके मददगार जरूर बन सकते हैं।
उन्होंने भाजपा के विरोध में बनने वाले किसी भी गठबंधन पर दबाव बनाने की चाल चल दी है। साथ ही साफ कर दिया है कि अब वह अपने अपमान का बदला लेने को कमर कस चुके हैं। सपा से समझौता करने वाले दल अगर भाजपा विरोधी वोटों में बंटवारा नहीं चाहते हैं तो उन्हें अखिलेश पर दबाव डालकर मोर्चा से भी बात करानी होगी। वर्ना वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर गठबंधन का गणित बिगाड़ेंगे। इसका फायदा भाजपा को होगा।
शिवपाल के एलान में दम
भले ही अखिलेश से सपा के युवा नेताओं का जुड़ाव है। पर, इससे शायद ही कोई इन्कार करे कि पार्टी में जमीनी पकड़ शिवपाल की भी है। मुलायम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के कारण उनका सभी जिलों में पुराने समाजवादियों के बीच आज भी इतना प्रभाव है कि अपने दम पर वह किसी को चुनाव भले न जिता पाएं लेकिन सपा के मतों में सेंध लगा सकते हैं।
यह भी महत्वपूर्ण है कि मुलायम ने विधानसभा चुनाव की तरह यदि अपनी भूमिका सीमित रखी, सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र या एक-दो जगह के अलावा कहीं नहीं गए तो शिवपाल का सेकुलर मोर्चा प्रभावी हो सकता है। उनके साथ यदि कुछ और छोटे दल आ गए तो गठबंधन के गणित से भाजपा या मोदी को हराने वालों का सपना टूटने की संभावना और बढ़ जाएगी।