वसीम जाफर. भारत के पूर्व क्रिकेटर और घरेलू क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज. अभी एक विवाद के चलते सुर्खियों में हैं. विवाद उपजा है उत्तराखंड क्रिकेट टीम के मैनेजर नवनीत मिश्रा के बयान के बाद. मिश्रा ने वसीम जाफर पर टीम में साम्प्रदायिकता यानी धर्म के आधार पर खिलाड़ियों को चुनने का आरोप लगाया है.
वसीम जाफर ने इन सभी आरोपों का पुरजोर खंडन किया. उन्होंने एक-एक कर सभी आरोपों का कड़ाई से जवाब भी दिया. उनके जवाब के बाद उत्तराखंड क्रिकेट बैकफुट पर दिख रहा है. राज्य के सचिव माहिम वर्मा ने अब पूरे मामले की जांच की बात कही है. पहले उनका नाम भी जाफर पर धार्मिक भेदभाव के आरोपों लगाने में था. लेकिन उन्होंने इससे इनकार किया.
पहले जानते हैं कि मामला क्या है? वसीम जाफर मुंबई के क्रिकेटर हैं. इस टीम के साथ उन्होंने काफी क्रिकेट खेला और कई बार घरेलू टूर्नामेंट जैसे रणजी ट्रॉफी वगैरह जीते. बाद में वे विदर्भ चले गए और वहां भी रणजी चैंपियन टीम के सदस्य रहे. भारत के लिए उन्होंने 31 टेस्ट और दो वनडे खेले हैं. 42 साल के वसीम जाफर भारतीय घरेलू क्रिकेट के सबसे कामयाब खिलाड़ियों में से एक हैं.
साल 2020 में उन्होंने संन्यास लिया था. इसके बाद वे उत्तराखंड के कोच बन गए. जून 2020 में उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली. उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन के साथ उनका एक साल का कॉन्ट्रेक्ट हुआ.
उत्तराखंड की टीम घरेलू क्रिकेट में नई नवेली और कमजोर है. ऐसे में जाफर जैसे नाम का टीम के साथ आना बड़ी बात है. लेकिन कोरोना के चलते 2020 में घरेलू क्रिकेट नहीं हो सका. जनवरी में सैयद मुश्ताक अली ट्रॉफी के रूप में उत्तराखंड की टीम ने जाफर के कोच रहते टूर्नामेंट खेला. टीम इसमें फिसड्डी रही. पांच में से केवल एक मैच जीत सकी और पहले ही दौर से बाहर हो गई.
बाद में इकबाल अब्दुल्ला ने भी साफ किया कि उन्होंने टीम मैनेजर की अनुमति से ही मौलवी को बुलाया था. ऐसे में जाफर पर मजहबी तरफदारी के आरोप क्योंकर लगाए गए? अगर उनकी कोचिंग का तरीका पसंद नहीं था या टीम चयन को लेकर मतभेद थे तो उन्हीं के जरिए मामले को आगे बढ़ाया जाता. धर्म के नाम पर बखेड़ा खड़ा करने का क्या मतलब हुआ? इन सबके बीच बीसीसीआई की चुप्पी भी खलती है. सौरव गांगुली अभी बीसीसीआई अध्यक्ष हैं. ने वसीम जाफर के साथ खेले हैं. अगर उनकी तरफ से एक बयान आता तो पूरा मामला खत्म हो जाता है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
बीसीसीआई ही क्यों जाफर जिस मुंबई से आते हैं उसके क्रिकेटरों की भी भारत में तूती बोलती है. लेकिन मुंबई के किसी भी नए या पुराने दिग्गज क्रिकेटर ने जाफर के लिए चूं तक नहीं की. सब मुंह में दही जमाए बैठे रहे. किसी ने भी इस मामले में जाफर का पक्ष लेना तो दूर पारदर्शी जांच की मांग तक नहीं की.
अनिल कुम्बले, इरफान पठान और मनोज तिवारी जैसे गिने-चुने नाम थे जिन्होंने जाफर का पक्ष लिया. 12 फरवरी को जब टीम इंडिया के उपकप्तान अजिंक्य रहाणे प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए आए तो उनसे जाफर के मामले में पूछा गया. उनका जवाब था, ‘मुझे इस बारे में जानकारी नहीं तो मैं कोई कमेंट नहीं कर सकता.’
हो सकता है कि रहाणे को नहीं पता हो. वैसे भी आजकल इतना क्रिकेट हो रहा है कि समाचार पढ़ने के लिए समय कहां से मिलता होगा? लेकिन अभी कुछ दिन पहले तक यही रहाणे, बाकी क्रिकेट सितारों की मंडली जिसमें विराट कोहली रवि शास्त्री, सचिन तेंदुलकर के साथ किसान आंदोलन के शांतिपूर्ण हल निकलने की बात कह रहे थे. वह भी तब जब किसान आंदोलन पर ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना जैसी ‘विदेशी ताकतों’ ने कमेंट किया था. उससे पहले तक तो शायद रहाणे को किसान आंदोलन के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी. वे कोहली की गैरमौजूदगी में टीम इंडिया का मनोबल बढ़ा रहे होंगे तो शास्त्री शायद टीम को ऑस्ट्रेलिया फतेह कराने में व्यस्त थे और सचिन किसी नौजवान भारतीय की खूबियों का वीडियो बनाने में!
क्रिकेट में इस तरह से मजहब के नाम पर भेदभाव के आरोप काफी खतरनाक हो सकते हैं. क्योंकि भारत जैसे देश में संभव है कि खेल वो इकलौता प्लेटफॉर्म हैं जहां पर धर्म के आधार पर किसी को जज नहीं किया जाता. तभी तो ऑस्ट्रेलिया में जब मोहम्मद सिराज ने नस्लभेदी टिप्पणियों की शिकायत की तो सारा भारत एक था.
सबने एक साथ सिराज का साथ दिया था. किसी ने उस समय धर्म नहीं देखा था. आईपीएल के दौरान कई बार धर्मशाला में मैच से पहले दलाई लामा खिलाड़ियों को आशीर्वाद देते थे. तब किसी ने नहीं कहा था कि क्रिकेट के मैदान में बौद्ध धर्म के एक मुखिया का क्या काम है? क्योंकि खेल के मैदान में सबसे अहम खिलाड़ी का खेल और उसका जुनून ही होता है. बाकी सब नगण्य.
वसीम जाफर एक जाना-माना नाम है. उनका खेल सबके सामने हैं. वे भारत के कई दिग्गजों के साथ खेले हैं. टीम इंडिया का विदेशों में प्रतिनिधित्व किया है. ऐसे में जब वे ही इस तरह के आरोपों पर अकेले पड़ गए हैं तो किसी उभरते हुए मुस्लिम खिलाड़ी या कोच को कितना सहयोगा मिलेगा, यह सोचा जा सकता है. देश अभी जिन हालातों से गुजर रहा है उनमें इस तरह के धार्मिक भेदभावों के आरोप काफी गंभीर खतरे खड़े कर सकते हैं. बीसीसीआई का मौन साधना और पूर्व क्रिकेटरों का नजरें फेर लेना इन खतरों को और ज्यादा ही बढ़ाएगा.