लुधियाना जेल में दो नामधारी सिखों को फांसी दी गई थी इसलिए यह जगह शहीदों से जुड़ी हुई थी…

सतगुरु राम सिंह ने कूका आंदोलन चलाकर अंग्रेज शासन का विरोध किया तो उनके कई योद्धाओं को शहादत भी देनी पड़ी। लुधियाना जिले के रायकोट में वर्ष 1871 में बूचड़खाने पर हुए हमले में आरोपित कूका पलटन के दो प्रमुख सदस्यों सूबा ज्ञानी रत्न सिंह और संत रत्न सिंह को जेल के बाहर जनता के सामने एक साथ बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी गई थी। जेल तब सिविल अस्पताल के पास हुआ करती थी। जैसे-जैसे शहर बढ़ता गया तो सिविल अस्पताल के पास से जेल को यहां से ताजपुर रोड पर शिफ्ट किया गया तो यह जगह खाली हुई। नामधारी समुदाय ने पंजाब सरकार से जगह मांगी, जहां पर सूबा ज्ञानी रत्न सिंह व संत रत्न  सिंह को फांसी हुई थी। मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के समय शुरु हुई प्रक्रिया वर्ष 1998 में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के वक्त सिरे चढ़ी और नामधारी संगत को यह जगह स्मारक के लिए मिल गई। बरगद का वह पेड़ आज भी लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में नामधारी संगत की शहादत की याद दिलाता है।

कैदियों से पेड़ के नीचे करवाई जाती थी मुलाकात

अंग्रेजों के जमाने में लोग जब जेल में बंद अपने स्वजनों से मिलने आते थे तो इसी बरगद के पेड़ के नीचे मुलाकात करवाई जाती थी। बताते हैं कि उस वक्त बरगद के पेड़ के पास लोगों का जमघट लगा रहता था। इसलिए अंग्रेजों ने नामधारी सिखों सूबा ज्ञानी रत्न सिंह और संत रत्न सिंह को इसी पेड़ के नीचे फांसी की सजा देने का ऐलान किया। 23 नवंबर 1871 को इसी बरगद की दो टहनियों से दोनों को लटका दिया गया। पंजाब सरकार ने जब यह जगह नामधारी शहीद मेमोरियल ट्रस्ट को सौंपी तो ट्रस्ट ने अब यहां पर स्मारक बना दिया है। इस पेड़ को भी संरक्षित कर दिया। यही नहीं, पेड़ पर दोनों शहीदों का फांसी पर लटकता हुआ चित्र व इतिहास भी लिखा है। पंजाब सरकार ने वर्ष 1998 में कमेटी को 3802 गज जगह दी और बाद में वर्ष 2011 में फिर से सरकार ने 1200 गज और जगह कमेटी को दी। वर्तमान में यहां पर स्मारक के अलावा एक दीवान घर है और एक दीवानघर निर्माणाधीन है।

एक रुपये में मिली जेल की जमीन

कूका शहीद मेमोरियल ट्रस्ट के चेयरमैन सुरिंदर सिंह नामधारी ने बताया कि स्वतंत्रता आंदोलन में सैकड़ों नामधारी सिखों ने अपना योगदान दिया और शहीद हुए। लुधियाना जेल में दो नामधारी सिखों को फांसी दी गई थी, इसलिए यह जगह शहीदों से जुड़ी हुई थी। जब तक यहां पर जेल रही, तब तक इस स्मारक को बनाना संभव नहीं था। जब जेल को यहां से शिफ्ट किया गया तो फिर सरकार से जगह लेने की प्रक्रिया शुरू हुई। उन्होंने बताया कि जब बेअंत सिंह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक रुपये में 3802 वर्ग गज जगह स्मारक के लिए देने की घोषणा की थी। इसका तत्कालिक अफसरों ने विरोध भी किया था, लेकिन बेअंत सिंह अपनी घोषणा पर कायम रहे। कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई और जगह अलॉटमेंट की फाइल दबी रह गई। वर्ष 1998 में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने उसी घोषणा के मुताबिक यह जगह दी। फिर वर्ष 2011 में बाकी की जगह भी दी।

जेलर की कोठी आज भी मौजूद

पंजाब सरकार ने जब यह जगह ट्रस्ट को सौंपी तो इसके अंदर अंग्रेजों के जमाने से बने जेलर की कोठी मौजूद थी। सुरिंदर सिंह नामधारी ने बताया कि यह कोठी करीब 200 साल पुरानी बताई जाती है। कूका शहीद मेमोरियल ट्रस्ट ने भी इस कोठी को तोड़ा नहीं, बल्कि इसे संरक्षित करने का फैसला किया है। इस कोठी के साथ नया दीवान हॉल बनाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि शहीदों की याद में स्मारक में हर साल 23 नवंबर को शहीदी समागम होता है।

यह है सूबा ज्ञानी और संत रत्न सिंह की शहादत का इतिहास

मेरठ में मंगल पांडे और पंजाब में सतगुरु राम सिंह ने अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ बगावत की तो अंग्रेजों को भारत में अपना शासन उखड़ने का पूर्वानुमान होने लगा। सतगुरु राम सिंह ने बैसाखी के दिन श्वेत पताका फहराकर अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ बगावत शुरू की। सतगुरु राम सिंह के साथ सूबा ज्ञानी रत्न सिंह और संत रत्न  सिंह भी अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत कर रहे थे। इसी दौरान नामधारी सिखों ने रायकोट में खुले एक बूचड़खाने का विरोध किया। विरोध के दौरान 18 जुलाई 1871 को रात आठ बजे बूचड़खाने पर हमला हुआ और उसमें बूचड़खाना चलाने वालों की हत्या कर दी गई। गायों को रिहा कर दिया गया। यह बूचड़खाना अंग्रेजों ने शुरू किया था तो वे इस घटना से विचलित हो गए। उन्होंने हमला करने वालों की धरपकड़ करनी शुरू की, लेकिन अंग्रेजों के हाथ कोई नहीं लगा। कुछ दिन बाद सात लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से तीन नामधारी सिखों को रायकोट के पास ही सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी गई। ज्ञानी रत्न सिंह व संत रत्न सिंह को 28 अगस्त 1871 को लुधियाना जेल भेज दिया गया। 26 अक्टूबर 1871 को इन दोनों को फांसी की सजा सुनाई गई। 11 नवंबर 1871 को उनकी सजा को काले पानी की सजा में बदला गया। बाद में 14 नवंबर को जज ने उन्हें फांसी सजा सुना दी और 23 नवंबर 1871 को लुधियाना जेल जहां अब शहीदी स्मारक है, वहां पर बरगद के पेड़ पर लटका कर उन्हें फांसी दे दी गई।

रत्न सिंह लगाते थे अदालत

सतगुरु राम सिंह ने जब अंग्रेजों की अदालतों का बहिष्कार किया तो उन्होंने अपनी अदालतें स्थापित की। संगत के पढ़े-लिखे और सुलझे व्यक्तियों को अदालतें लगाने को कहा। सूबा ज्ञानी रत्न सिंह भी अदालत लगाते थे।

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