रेलवे स्टेशन के पास स्थित मंडी फैंटनगंज करीब 115 वर्ष से गुलजार है। यह ब्रिटिश राज से ही उत्तर भारत का प्रमुख व्यापारिक केंद्र है। यहां से काबुल तक कारोबार होता था। कारोबारियों में आपस में घनिष्ठ संबंध हुआ करते थे। यह परंपरा आज भी बरकरार है। देश विभाजन के समय पाकिस्तान से उजड़कर यहां आने वाले लोगों के ठहराव के लिए मंडी में विशेष व्यवस्था की गई थी। उनके भोजन का भी पूरा प्रंबंध था। तब से लेकर इस मंडी में काफी बदलाव भी आया है। आइए डालते हैं इसके इतिहास और वर्तमान पर एक नजर।
आज भले ही वर्कशॉप चौक के पास नई दाना मंडी विकसित होने के बाद मंडी फैंटनगंज में कारोबार कम हुआ है, बावजूद इसके दालें, मसाले व ड्राईफ्रूट की सबसे अधिक वरायटी और भंडारण के लिए आज भी यह मंडी पूरे दोआबा में विख्यात है। यह एकमात्र ऐसी मंडी है, जहां पर स्कूल से लेकर जंजघर और मंदिर से लेकर अस्तबल तक का प्रबंध किया गया है। यहां चौथी से लेकर पांचवीं पीढ़ी कारोबार कर रही है। हालांकि, समय के साथ मंडी में पहले के मुकाबले रिहायश मात्र 15 से 20 फीसद ही रह गई है।
कारोबारियों के व्यापार से अधिक परिवारिक संबंध
मंडी फैंटनगंज में 100 के करीब शॉप कम फ्लैट बनाए गए थे। व्यापारी यहीं पर रहा करते थे और उनके परिवारिक संबंध हुआ करते थे। भले ही समय के साथ यहां पर रिहायश बहुत कम हो गई है, लेकिन आपसी भाईचारा आज भी मिसाल बना हुआ है। रेलवे स्टेशन का मंडी के नजदीक होने का लाभ कारोबारियों के मिलता था। यहां पर माल की आमद से लेकर निर्यात में कारोबारियों को आसानी रहती थी। उस समय परिवहन के साधन सीमित होने के चलते माल भेजने के लिए रेलवे सरल साधन था।
विभाजन के जख्म पर लगाते रहे मरहम
अनिल काला शर्मा बताते हैं कि विभाजन के समय इस मंडी का भाईचारा पूरे राज्य के लिए मिसाल बना था। पिता स्व. ओम प्रकाश शर्मा बताते थे कि विभाजन के समय जो ट्रेन जालंधर आकर रुकती थी, उसके रिफ्यूजियों को मंडी के स्कूल में ठिकाना दिया जाता था। इसमें उन लोगों के भोजन से लेकर विश्राम करने तक का इंतजाम व्यापारी करते थे। विभाजन के इस जख्म पर मरहम लगाने के लिए कारोबारियों ने इन दिनों में अपना कामकाज छोड़कर दिन-रात सेवाएं दी।
मंदिर से लेकर जंजघर तक का है इंतजाम
प्रसिद्ध कारोबारी अनिल सोनी बताते हैं कि मंडी का निर्माण करते समय व्यापारियों के भविष्य का भी ध्यान रखा गया था। इसमें कारोबार के साथ उनकी रिहायश के लिए शॉप कम फ्लैट तो बनाए ही गए थे। इसके साथ ही मंडी के गेट के साथ एक स्कूल, मंडी के अंदर एक मंदिर तथा पानी की आपूर्ति के लिए टंकी भी लगाई गई। मंडी में माल भेजने का साधन केवल घोड़े ही हुआ करते थे, इसके लिए यहां अस्तबल भी बनाया गया था। यहां पर घोड़ों को खुराक से लेकर पानी तक का इंतजाम किया गया।
डिप्टी कमिश्नर फैंटन के नाम पर रखा गया नाम
मंडी फैंटनगंज में दालों के कारोबारी पविंदर बहल बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने में 1905 में जिले के डीसी फैंटन के नाम पर मंडी का नामकरण किया गया था। 64 कनाल जमीन में बसी इस मंडी को दो भागों में तैयार किया गया। इसमें 100 के करीब शॉप कम फ्लैट बनाए गए थे। विभाजन और इसके बाद कई सरकारें बदली, लेकिन मंडी का नाम आज भी डीसी फैंटन के नाम पर ही है। पहले रेलवे के जरिये कारोबार होता था, लेकिन अब परिवहन के साधन बढ़ गए हैं।
घोड़ा गाड़ी में भेजा करते थे माल
चीनी के थोक कारोबारी सुरिंदर भाटिया बताते हैं कि मंडी फैंटनगंज से ड्राई फ्रूट, जिसमें खासकर बादाम, अवजोश व किशमिश का कारोबार का काबुल (अफगानिस्तान) और पाकिस्तान से लेकर हिमाचल प्रदेश के साथ भी किया जाता रहा। अतीत के झरोखे से भाटिया बताते हैं कि उस समय परिवहन के साधन सीमित होने के चलते अन्य राज्यों तक घोड़ा गाड़ी में माल भेजा करते थे। इसमें कई बार तीन से चार दिन भी लग जाते थे।