रमजान माह का पहला अशरा (प्रारंभ यानी शुरू के दस रोजे) रहमत (ईश्वर की कृपा) का माना जाता है. शुरुआती दस रोजे किसी दरिया के मानिन्द हैं जिसमें अल्लाह की रहमत का पानी बहता रहता है. ये 10 रोजे बहुत ही अहम होते हैं जिन्हें तरीके निभाने होते हैं. रोजादार तक़्वा (सत्कर्म-संयम) को अपनाते हुए जब रोजा रखता है तो वह बेशुमार नेकियों का हक़दार हो जाता है. ये नेकियां सदाकत (सच्चाई) और सदाअत (सात्विकता) का सैलाब बनकर उसके लिए बख़्शीश की दुआ अल्लाह से करती हैं.
ये माह का सातवा रोजा है जिसकी क्या खासियत है ये हम बताने जा रहे है. असल में पवित्र कुरआन की तीसवें पारे (अध्याय-30) की सूरह अलइन्क़िशाक की आयत नंबर छः में ज़िक्र है- ‘या अय्युहल इन्सानु इन्नाका कादिहुन इला रब्बेका कदहन फ़मुलाकीह’ यानी ‘ऐ इंसान तू अपने परवरदिगार की तरफ (पहुंचने में) खूब कोशिश करता है सौ उससे जा मिलेगा.’ इसके अलावा इस आयत को रोजे की रोशनी में देखें तो उसकी तशरीह इस तरह होगी कि रोजा रहमत का दरिया तो है ही, नेकी के सैलाब के साथ अल्लाह तक (तरफ़) पहुंचने का जरिया भी है. इस रोजे के बारे में यूं भी कहा जा सकता है कि जब रास्ता लंबा हो, दुश्वारियां हों, भटकने के आसार हों, कांटों-कंकरों की चुभन से पांवों के लहूलुहान होने का डर हो तो ईमानदारी के साथ रखा गया रोजा राह को हमवार और दुश्वारियों को दरकिनार कर देता है. यानी रूहानी नजरिए से अल्लाह तक पहुंचने का रोजा एप्रोच रोड है. यानि ये सातवा रोजा आपको हर मुसीबत से दूर रखता है.