मोबाइल के कारण भारी संख्या में लोग बीमारी की चपेट में आ रहे हैं, कहीं आप भी तो इसके शिकार नहीं हो गए हैं। देश में मोबाइल यूजर्स की संख्या 104 करोड़ तक जा पहुंची है। इंटरनेट के विस्तार और सोशल साइट के तिलिस्म ने लोगों को मोबाइल एडिक्ट बना दिया है। यह ऐसा नशा है जो इसमें जकड़े व्यक्ति को मदहोश नहीं करता लेकिन उसकी मनोदशा बिगाड़ देता है। हर वक्त सिर झुकाकर मोबाइल स्क्रीन से चिपके रहने वाले लोगों को मोबाइल एडिक्ट की श्रेणी में रखा जा रहा है। इसके शिकार युवा और बुजुर्ग ही नहीं बल्कि 2 से 14 साल की आयु वर्ग के बच्चे व किशोर भी हैैं। अब ऐसे लोगों के इलाज के लिए गुरुनगरी अमृतसर में मोबाइल डी-एडिक्शन ट्रीटमेंट सेंटर खोला गया है।
मोबाइल का नशा, बिगाड़ रहा मानसिक दशा, काउंसिलिंग और दवाओं से ठीक होगा मर्ज
सरकुलर रोड पर इस सेंटर का संचालन कर रहे न्यूरोसाइकेट्रिक डॉ. जेपीएस भाटिया ने दावा किया कि यह देश का पहला मोबाइल डी-एडिक्शन ट्रीटमेंट सेंटर है। इससे पहले बेंगलूरु में इंटरनेट एडिक्शन सेंटर खुले हैैं लेकिन देश के किसी भी राज्य में कभी मोबाइल डी-एडिक्शन सेंटर नहीं खुला। यहां दो से 50 साल तक के मोबाइल एडिक्ट लोगों का उपचार किया जा रहा है। उनके पास 25 केस आ चुके हैं। इनमें छह युवा, तीन बुजुर्ग और बाकी सब बच्चे हैैं। इन सभी की साइकोलॉजिकल काउंसिलिंग की जा रही है।
अमृतसर में खुला देश का पहला मोबाइल डी-एडिक्शन ट्रीटमेंट सेंटर, इस कारण खोला
उन्होंने बताया, कुछ समय पर एक दो वर्ष के बच्चे को मेरे पास लाया गया। उसका व्यवहार अन्य बच्चों से अलग था। मैैं बच्चे के माता पिता से बात कर रहा था और मेरा मोबाइल टेबल पर पड़ा था। मोबाइल देख बच्चे की आंखों में चमक आ गई। उसे मोबाइल थमाया गया तो वह खुश हो गया। मोबाइल वापस मांगा तो उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया जबकि मोबाइल छीनने पर वह तब तक रोया जब तक उसे दोबारा मोबाइल नहीं दिया गया। उनके पास युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गों के ऐसे कई केस आए जिनकी दुनिया मोबाइल तक सीमित है।
स्कूल गोइंग बच्चों के लिए अलार्मिंग स्टेज
उन्होंने कहा कि मोबाइल एडिक्शन का शिकार अधिकतर बच्चे स्कूल गोइंग हैं। वह लगातार मोबाइल से जूझते दिखाई देते हैैं। इस कारण बच्चों और युवाओं में शारीरिक समस्याएं बढ़ रही हैैं। डायबिटीज का खतरा, अनिद्रा, कब्ज, मोटापा, हाइपरटेंशन, आंखों में जलन, अस्थमा आदि आम है।
स्कूलों का चलन भी गलत
डॉ. भाटिया कहते हैैं कि आज कल बच्चों का होमवर्क अभिभावकों के मोबाइल पर भेजा जाता है। ऐसे में बच्चे अभिभावकों के मोबाइल पर होमवर्क देखते हैं और फिर कई एप्लीकेशन्स व सोशल साइट्स भी खोल लेते हैं। इसके बाद उन्हें इसकी लत लग जाती है।
माता-पिता रखें इन बातों का ध्यान
– बच्चों को मोबाइल फोन न दें। अगर मजबूरी में कुछ समय के मोबाइल देना भी पड़े तो ऐसी गेम डिलीट कर दें जिससे बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता आती है।
– स्क्रीन की ब्राइटनेस 100 से 15 कर दें।
– बच्चों को ज्यादा इनडोर और आउडटोर खेल खेलाएं।
– उन्हें उनके मनपसंद खिलौने लाकर दें।
– बच्चों से बातें करें और उन्हें समय दें।