हमारी भारतीय परंपरा में परिवार और उसमें मुखिया की मौजूदगी का बड़ा महत्व है। सदियों से हम मुखिया वाली पारिवारिक संस्कृति के साथ आगे बढ़ रहे हैं। पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि जंगल के राजा शेर भी परिवार में मुखिया की प्रथा से जुड़े हैं। वह भी सिर्फ भारतीय (एशियाई) शेर। क्योंकि अफ्रीकी शेर पारिवारिक मुखिया वाली इस व्यवस्था के साथ बिल्कुल भी नहीं जुड़े हैं।
यह चौंकाने वाला खुलासा किया है भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) ने। सोमवार को वार्षिक शोध संगोष्ठी में न सिर्फ इस अध्ययन को साझा किया गया, बल्कि इसके कारणों की पड़ताल भी की गई।
संस्थान की शोधार्थी डॉली बोराह ने बताया कि उन्होंने वर्ष 2017 से 2019 के बीच गुजरात के गिर संरक्षित वन क्षेत्र में शेरों पर यह अध्ययन किया। उन्होंने मादा शेरों की पारिवारिक स्थिति को केंद्र में रखा। उन्होंने पाया कि जिस झुंड में जो सबसे उम्रदराज मादा शेर है, उसको सबसे अधिक तव्वजो दी जा रही थी। इसके अलावा उससे कम उम्र की शेरनी को उससे कम और फिर इसी क्रम में यह तव्वजो कम होती जा रही थी या उसका काम सिर्फ बड़ों के निर्देशों का अनुपालन करना ही रहा।
उम्र की यह हैरारकी (अनुक्रम) वहां अधिक रही जो शेरनियां एक ही परिवार का हिस्सा थीं। यानी कि दूसरे परिवार की शेरनियों को चाहे वह उम्र में बड़ी ही क्यों न हों, उतनी तव्वजो नहीं मिल रही थी। इसके अलावा एक अन्य अध्ययन में नर शेरों में भी यही स्थिति निकलकर सामने आई।
दूसरी तरफ शोधार्थी डॉली बोराह ने बताया कि अफ्रीका में शेर इस प्रथा का बिल्कुल में अनुपालन नहीं करते हैं। वहां उम्र में बड़े शेर व छोटे शेर को एकसमान तव्वजो दी जाती है।
भोजन की कमी को माना जा रहा वजह
शोधार्थी डॉली ने बताया कि भारत में शेरों के लिए भोजन की कमी है। शायद इसीलिए झुंड में बड़े-छोटे का क्रम तय किया गया है, ताकि सभी को समुचित मात्रा में भोजन मिल सके। दूसरी तरफ, अफ्रीका के वनों में शिकार की अधिक संभावना होने के चलते कहीं कोई टकराव की नौबत नहीं आती। लिहाजा, झुंड के सभी शेर मिलजुलकर रहते हैं।
डीएनए सैंपल से की परिवार की पहचान
भारतीय वन्यजीव संस्थान ने शेरों के परिवार की पहचान के लिए करीब 100 डीएनए सैंपल लिए। इससे देखा गया कि जो मादा शेर एक ही परिवार से ताल्लुक रखती हैं, वहां हैरारकी का स्तर उम्र के हिसाब से चला आ रहा था। यानी कि झुंड में भी परिवार के सदस्य की उम्र को ही अधिक तव्वजो दी जा रही है।
झारखंड-छत्तीसगढ़ में हो रहा बाघों का शिकार
वर्ष 2014 की बाघ गणना के मुकाबले 2018 की गणना में बाघों में संख्या में 33 फीसद का इजाफा दर्ज किया गया है। सिमटते प्राकृतिक वासस्थलों और कॉरीडोर पर बढ़ते दबाव के बीच यह बेशक राहत की बात है, मगर दूसरी तरफ एक चिंता भी जरूर खड़ी हो गई है। वह यह कि ईस्टर्न घाट क्षेत्र में बाघों की संख्या करीब 25 फीसद की कमी आना।
भारतीय वन्यजीव संस्थान में आयोजित वार्षिक शोध संगोष्ठी में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वाईवी झाला ने इस चिंता को साझा किया। उन्होंने बताया कि झारखंड व छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित इलाके होने के चलते बाघों का शिकार किया जा रहा है। वहीं, नॉर्थ ईस्ट में जनजाति क्षेत्र के लोग बाघों का शिकार करने वाले जीवों को मारकर खा जा रहे हैं।
डॉ. वाईवी झाला के मुताबिक, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हथियार खरीदने के लिए भी बाघों का शिकार कर खाल आदि की तस्करी से इन्कार नहीं किया जा सकता। ये ऐसे क्षेत्र हैं, जहां वन विभाग भी निरंतर रूप से निगरानी करने में अक्षम हैं। ईस्टर्न घाट क्षेत्र में बाघों की घटती संख्या पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार को अधिक काम करने की जरूरत है। निगरानी, नियंत्रण व संरक्षण तंत्र को बढ़ाने के लिए मौजूदा बजट में कम से कम 50 फीसद तक का इजाफा किया जाना जरूरी है।
शाकाहारी ट्राउट को मांसाहारी ट्राउट से खतरा
हिमालयी क्षेत्र की शान मानी जाने वाली ‘स्नो ट्राउट’ मछली को उसके ही घर में चुनौती मिल रही है। एक तरफ यह चुनौती ग्लोबल वार्मिंग की है तो दूसरी तरफ ऐसे विदेशी मेहमान की। जिन्हें उन नदियों में डाला गया है, जो स्नो ट्राउट का हमेशा से घर (प्राकृतिक वास) रही हैं।
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) में आयोजित एनुअल रिसर्च सेमिनार (वार्षिक शोध संगोष्ठी)-2019 में परियोजना विज्ञानी डॉ. विनीत कुमार दुबे व सौम्या दासगुप्ता ने ताजातरीन अध्ययन के माध्यम से इस चुनौती को साझा किया।
परियोजना विज्ञानियों ने उत्तराखंड के भागीरथी रिवर बेसिन, हिमाचल प्रदेश के ब्यास रिवर बेसिन व सिक्किम के सीस्ता बेसिन में वर्ष 2014-2019 तक इस संबंध में अध्ययन किया। इस दौरान करीब 500 स्थलों पर स्नो ट्राउट के वासस्थलों का अध्ययन किया गया।
हिमालयी क्षेत्र में स्नो ट्राउट मछलियां मूल रूप से वास करती हैं, जबकि ब्राउन ट्राउट को यहां मछली पालन के लिए लाया जा रहा है और उन्हें हैचरी के अलावा नदियों में भी छोड़ा जा रहा है। अध्ययन में इस बात के प्रमाण मिले हैं कि मांसाहारी ब्राउन ट्राउट शाकाहारी स्नो ट्राउट पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुंचा रही हैं। ऐसे में स्नो ट्राउट को उनके ही इलाके में विदेशी प्रजाति की ब्राउन ट्राउट से खतरा पैदा होने लगा है। क्योंकि मांसाहारी ट्राउट शाकाहारी स्नो ट्राउट के गलफड़ों पर भी वार कर रही हैं।
बढ़ते तापमान में ऊपर की तरफ शिफ्ट होंगी ट्राउट
डब्ल्यूआइआइ के वैज्ञानिकों ने बढ़ते तापमान को लेकर अनुमान लगाया है कि एक हजार से ढाई हजार फीट मीटर की ऊंचाई पर रहने वाली ट्राउट मछली अधिकतम 14-15 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रह सकती हैं। जिस तरह से पिछले सौ सालों में दुनिया का औसत तापमान एक डिग्री तक बढ़ा है, उसे देखते हुए माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक ट्राउट ऊपरी इलाकों में शिफ्ट होने लगेंगे। अधिक ऊंचाई पर नदियों की धारा पतली हो जाती है और उनके शिफ्ट होने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी। लिहाजा, इन मछलियों के अस्तित्व पर दबाव निरंतर बढ़ रहा है।