शिकागो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रघुराम राजन की गिनती दुनिया के बड़े अर्थशास्त्रियों में होती है। यूपीए सरकार के दौरान इन्हें भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया था। कहा जा सकता है कि राजन के कार्यकाल में उनके कार्यो से ज्यादा उनकी बातों की चर्चा होती रही। उनके बाद उनके कार्यो की बड़ी चर्चा हुई कि राजन ने ही बैंकों में लंबे समय से डूबे कर्जो को देश के सामने रखा। इससे मतलब यह निकाला गया कि रघुराम राजन ने बैंकों की गंदगी को जनता के सामने लाकर रख दिया। संसदीय समिति को हाल में उन्होंने लिखी चिट्ठी में डूबे कर्जो का उत्पत्ति काल 2006-2008 बताया है। मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति को लिखी चिट्ठी में रघुराम राजन बताते हैं कि बैंकर अति आत्मविश्वास में थे और उन्होंने कर्ज देने के लिए जरूरी जांच तक नहीं की।
…तो स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाता
बैंकर्स एसबीआइ कैपिटल और आइडीबीआइ की रिपोर्ट पर निर्भर थे। इससे इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि किसी दबाव में कर्ज दिए गए हों। रघुराम राजन की इसी बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि अगर सरकार आने के साथ ही हमने बैंकिंग क्षेत्र की हालत देश-दुनिया को बता दी होती तो स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रघुराम राजन एक ही बात कह रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री के कहे को कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा राजनीतिक बयान साबित करने की कोशिश की जाती है। अब रघुराम राजन के कहे से शायद उनकी समझ थोड़ी बदल सकती है। राजन इसी चिट्ठी में लिखते हैं, ‘वर्ष 2006-2008 के बीच दिए गए कर्ज में से ज्यादातर डूबे। उस समय अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में थी तथा बुनियादी परियोजनाएं समय पर पूरी हो रही थीं और उसी समय बैंकों ने गलती करनी शुरू की।’ यह बात भी सही है कि यह बैंकरों की गलती से ज्यादा राजनीतिक दबाव का नतीजा था।
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