बीजेपी ने यूपी की रायबरेली लोकसभा सीट से सोनिया गांधी के खिलाफ एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह को प्रत्याशी बनाया है. दिनेश प्रताप सिंह को टिकट देने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. दरअसल दिनेश प्रताप सिंह ने यूपी के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दल का साथ निभा चुके हैं. समाजवादी पार्टी से अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत करने वाले दिनेश प्रताप सिंह बीएसपी और कांग्रेस के बाद इन दिनों रायबरेली में बीजेपी के स्टार चेहरे के तौर पर उभरे हैं. 
दिनेश प्रताप सिंह फिलहाल स्थानीय निकाय से यूपी विधानपरिषद के सदस्य हैं. अप्रैल 2018 में दिनेश प्रताप सिंह कांग्रेस छोड़कर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में भाजपा में शामिल हो गए थे. कांग्रेस के बड़े नेताओं में दिनेश प्रताप सिंह की गिनती हुआ करती थी. सोनिया-राहुल से लेकर प्रियंका वाड्रा तक दिनेश प्रताप सिंह के राजनीतिक सूझ बूझ की कायल थी. सोनिया गांधी के चुनाव में दिनेश प्रताप ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यूं कहें कि दिनेश प्रताप सिंह को गांधी परिवार के हर वो दांव पता है, जिससे अब तक रायबरेली और अमेठी अभेद दुर्ग जैसा बना हुआ है.
रायबरेली में डॉन अखिलेश सिंह की बेटी अदिति सिंह की कांग्रेस में बढ़ती सक्रियता और प्रियंका के बढ़ती नज़दीकियों को चलते दिनेश सिंह को कांग्रेस में अहमियत नहीं मिल पा रही थी. इसी का फायदा उठाकर बीजेपी ने दिनेश प्रताप सिंह को सपरिवार बीजेपी में शामिल करा लिया और लोकसभा चुनाव का टिकट भी दे दिया.
दिनेश प्रताप सिंह की राजनीतिक ताकत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो खुद एमएलसी हैं तो उनके भाई अवधेश प्रताप सिंह रायबरेली के ज़िला पंचायत अध्यक्ष हैं. वहीं दिनेश के एक और भाई राकेश सिंह रायबरेली की हरचंदपुर विधानसभा से विधायक है. रायबरेली के अधिकांश ग्राम प्रधान भी दिनेश के बेहद करीबी माने जाते हैं.
तो सोनिया गांधी को उनके ही घर में मात देने के लिए बीजेपी ने पुराने कांग्रेसी पर ही दांव लगाना उचित समझा है, क्योंकि दिनेश प्रताप सिंह का अपना जनाधार है और कांग्रेस की कमज़ोर व मज़बूत दोनों ही कड़ी को बखूबी समझते हैं. यही नहीं ग्रामीण वोटर को दिनेश के ज़रिए बीजेपी तोड़ना चाहती है.
हालांकि 1977, 1996 और 1998 को छोड़ दें तो हमेशा रायबरेली सीट गांधी परिवार या उनके प्रतिनिधि के पास ही रही है. बीजेपी को इस बार उम्मीद है कि रायबरेली में दिनेश कमल खिला सकते हैं. लेकिन गांघी गढ़ में दिनेश प्रताप सिंह की राह भी आसान नहीं है, क्योंकि अब तक उन्हें अल्पसंख्यक वोट भी मिलता रहा है, जो कि अब मिलना असंभव है.
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