महाभारत के युद्ध में सौ पुत्रों के शोक से दुखी गांधारी ने क्रोध में आकर श्रीकृष्ण को श्राप दिया था. गांधारी का मानना था कि यदि श्रीकृष्ण चाहते तो ये युद्ध टाला जा सकता था. गांधारी के श्राप के कारण महाभारत के 36 वर्ष बाद ही द्वारका जल में समा गई.
द्वारका में हालात तनाव पूर्ण होने लगे तो श्रीकृष्ण बहुत दुखी हो गए. बलराम समाधि में लीन हो गए. समाधि लेते ही उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला जिसके हजारों मस्तक थे.
समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया. बलराम के देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उदास होकर वन में विचरण करने लगे. घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे. देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग यानि समाधि की अवस्था में खाली भूमि पर आंख बंद कर लेट गए.
जिस समय श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे उसी समय जीरू नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करता वहां आ गया. उसे कुछ चीज चमकती हुई दिखाई दी.
उसने इस हिरण की आंख समझी और तीर चला दिया. तीर चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकड़ने के लिए आगे बढ़ा तो समाधि में लीन श्रीकृष्ण को देख कर उसे बहुत दुख हुआ और क्षमा याचना करने लगा.
शिकारी को दुखी देख श्रीकृष्ण ने समझाया और अपने परमधाम की तरफ चल पड़े. जहां पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया.
उधर श्रीकृष्ण के सारथी दारुक ने अर्जुन को द्वारका की पूरी घटना बताई. जिसे सुनकर अर्जुन को बहुत ही कष्ठ हुआ. अर्जुन द्वारका पहुंचे तो और भी दुखी हुए.
श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी. उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे. इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले.
वे भी रोने लगे. तब वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाया और बताया कि द्वारका बहुत जल्द समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ.
सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की तरफ चल दिए. उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई.