पीएम नरेंद्र मोदी ने भले ही देश को खुले में शौच से मुक्त करने का सपना देखा हो, लेकिन अंबेडकर की जन्मस्थली पर रहने वाले दलित परिवारों को इतना भी हक नहीं है कि वह शौचालय का निर्माण कर सके.
अंबेडकर जयंती के मौके पर उनकी जन्मस्थली महू में दलितों की स्थिति कितनी बदली है ये देखने के लिए न्यूज18 की टीम मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के इस उपनगर पहुंची.
महू की दलितों की बस्तियों में जहां हर घर में बाबासाहेब की तस्वीर है, हर गली में महात्मा बुद्ध रचते बसते हैं लेकिन सहूलियतों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ वादे हैं. इस दौर में ये बातें हैरान करती हैं कि स्टेशन से महज़ 500 मीटर दूर स्थित इस दलितों की बस्ती में शिक्षा, रोज़गार और सरकारी योजनाएं मज़ाक लगती हैं.
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सड़क से दिखने वाली ये बस्तियां कई एकड़ में फैली हैं, लेकिन तंग गलियां जिसमें एक आदमी भी सही से चलने की हैसियत नहीं रखता, वहां सैंकड़ों परिवार आज़ादी के बाद से रहने को मजबूर हैं.
दरअसल सैन्य छावनी परिषद से कुछ विवाद के चलते इन लोगों को किसी तरह के निर्माण की इजाज़त नहीं है, ये लोग 50 साल से भी ज़्यादा वक्त से सेना की जमीन पर कथित तौर पर अवैध रुप से रह रहे हैं. लिहाज़ा ये किसी योजना की पात्रता नहीं रखते और इन्हें शौचालय तक बनाने की अनुमति तक नहीं है.
एसडीएम संदीप जीआर का कहना है कि लोगों का छावनी परिषद से कुछ विवाद हैं जिनका हल ढ़ूंढ़ा जा रहा है लेकिन ऐसा नहीं है कि दलित इलाकों में सुविधाओं का अभाव है.ये बात सही है कि बाबासाहेब ने दलितों के उत्थान के लिए जो सपना देखा था वो पूरी तरह से साकार नहीं हुआ, लेकिन इस तस्वीर को देखकर निराशा ज़रुर होती है कि 67 साल के गणतंत्र में बाबासाहेब की ज़मीन पर जन्में दलितों को शौचालय तक मयस्सर नहीं है.
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