दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। बशीर बद्र की ये पंक्तियां राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन) के प्रमुख सुदेश महतो पर सटीक बैठती दिख रही हैं।
वर्तमान परिस्थितियों में बस इसके अर्थ में थोड़ा बदलाव यह करना होगा कि दोनों जमकर दुश्मनी निभा रहे हैं और जब मिलते हैं, बैठते हैं तो दोस्ती की दुहाई देते भी नहीं अघाते। शर्मिंदा भी नहीं होते हैं, क्योंकि दलों का गठबंधन राज्य में न सही केंद्र में तो है ही।
आजसू, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा तो है ही। इनकी अदावत का सबसे बड़ा नुकसान भाजपा-आजसू गठबंधन राज्य से सरकार गंवा कर उठा चुकी है, अब रघुवर के राज्यसभा जाने में भी रोड़ा लग गया। चाहकर भी भाजपा रघुवर को टिकट देने का साहस नहीं जुटा सकी, क्योंकि उसे आशंका थी कि कहीं आखिर तक आजसू रघुवर को लेकर भड़क न जाए।
कहावत है, राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही दुश्मन। लेकिन अति महात्वाकांक्षा में ये दोनों नेता अब एक-दूसरे की खिलाफत में बहुत आगे निकल चुके हैं।
यह अदावत पिछले पांच साल से चली आ रही है। राज्य में आजसू के बिना भी बहुमत का जुगाड़ कर लेने के बाद ही रघुवर दास ने सुदेश महतो को किनारे लगा दिया था। वह इस पीड़ा को लेकर ही सरकार का हिस्सा रहे, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव के बाद उनकी उम्मीदें बढ़ गईं। केंद्र से लेकर राज्य भाजपा तक यह अंदाजा नहीं लगा पाई थी कि अगर वह गठबंधन से बाहर जाते हैं तो इतना बड़ा नुकसान हो सकता है।
खैर यह अब इतिहास का हिस्सा हो चुका है। इसमें नया अध्याय अब राज्यसभा टिकट का जुड़ गया गया है। अपने ही कैबिनेट के बागी सरयू राय से विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही ये कयास लगाए जा रहे थे कि पार्टी रघुवर दास को राज्यसभा ले जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की पसंद होने के कारण इसमें कोई रोड़ा भी नहीं था।
इधर, बाबूलाल मरांडी की घर वापसी भी हो गई थी। संकेत मिल रहे थे पार्टी अब रघुवर को राज्यसभा में भेजकर केंद्रीय राजनीति में ले जाएगी। लेकिन एक बार फिर सुदेश महतो इसमें रोड़ा बन गए। रघुवर ने उनकी तरफ दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया। सुदेश ने उन्हें आश्वस्त भी किया, लेकिन खुलकर इस पर कोई बयान नहीं दिया। वह लगातार यही कहते रहे, प्रत्याशियों के आने के बाद ही आजसू अपना निर्णय लेगी। वैसे भाजपा के पास 25 विधायक हैं।
बाबूलाल मरांडी के आने के बाद यह संख्या 26 हो गई। एक और सीट की जरूरत थी। निर्दलीय अमित भी भाजपा के हैं। उनका टिकट भी रघुवर दास ने काटा था और वह विद्रोही होकर जीतकर आए हैं।
यदि वह भी संगठन को आश्वस्त कर देते तो भी रघुवर दास राज्यसभा की टिकट पा सकते थे। वैसे निर्दलीय सरयू राय से तो भाजपा रघुवर दास के नाम पर कोई उम्मीद कर ही नहीं सकती थी।
ऐसे में कोई जोखिम लेने के बजाय पार्टी ने हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष बने दीपक प्रकाश को प्रत्याशी बनाया है। फिलहाल रघुवर की हालत न खुदा मिला न ही विसाल-ए-सनम जैसी हो गई है।
होली के दिन से ही राज्य के सात जिलों में भीषण बिजली संकट पैदा हो गया है। दामोदर वैली कॉरपोरेशन (डीवीसी) ने पांच हजार करोड़ रुपये के बकाया भुगतान को लेकर चतरा, हजारीबाग, कोडरमा, रामगढ़, धनबाद, बोकारो और गिरिडीह में आठ से लेकर 18 घंटे तक की बिजली कटौती शुरू कर दी है।
ऐसा नहीं है कि डीवीसी ने बिना किसी सूचना के ऐसा कदम उठाया है। फरवरी से राज्य सरकार को चेतावनी दी जा रही है कि अगर बकाया भुगतान नहीं किया गया तो बिजली आपूर्ति रोक दी जाएगी।
सरकार समय मांग रही थी और उसे मिला भी, लेकिन पैसे का भुगतान नहीं हो पाया। अब इस पर राजनीति भी शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बकाया का ठीकरा पूर्व सीएम रघुवर दास सरकार पर फोड़ते हुए केंद्र पर भी निशाना साधा है। उनका आरोप है कि कई राज्यों पर पचास हजार करोड़ रुपये तक बकाया है, लेकिन वहां कटौती नहीं हो रही है।