पूरे सात दिनों तक कानपुर में रहता है होली का खुमार गंगा मेला पर खत्म होता है रंग बरसना…

”हिअ बरसे रंग अटरियन से, कंपू की होरी के का कहने, खुल जावै धरम जाति की गांठें, जब महके टेसू घर आंगन मा, जब दौर चले ठंडाइन के, बजे ढोल चौपालन माÓÓ। जब फागुन अपने यौवन की पूर्णिमा का रंग बिखेरता है तो मन की गांठें प्रेम और सौहार्द के रंग से सराबोर होकर खुल जाती हैं। न जाति का बंधन होता है न धर्म की दीवार। भाषाई और सांस्कृतिक सरहदें तो एक दूसरे में समाने के लिए हमेशा तैयार ही रहती हैं। क्रांति और कलम के धनी कारोबारी शहर कानपुर में फागुन की यह बयार हर प्रांत की सांस्कृतिक सुगंध को अपने में समाहित कर सभी का तन-मन महका देती है। बरसाने की लठमार होली से कपड़ा फाड़ दाऊ जी के हुरंगा तक होली मनाने वाला ब्रज फागुन भर हुरियारे मूड में रहता है तो रोजगार और कारोबार का कानपुर भी पीछे नहीं है। एक दिन पहले से लेकर गंगा मेला तक, कानपुर सात से आठ दिन तक विविध रंग की होली मनाता है। सांस्कृतिक विविधता वाले कानपुर में विभिन्न समाज के रंगोत्सव पर ये विशेष रिपोर्ट।

 

सिंधी होली : बड़ों की अहमियत बताती है सिंधी समाज की होली

सिंधी समाज की होली बड़ों की अहमियत सिखाती है। डेढ़ लाख से अधिक संख्या वाला यह समाज बड़ों की अनुमति लेकर विधि-विधान से त्योहार मनाता है। अग्नि के फेरे लेकर सुख-समृद्धि की कामना करता है। द ओल्ड सक्खर सिंधी समाज के उपाध्यक्ष अमित खत्री बताते हैं, पर्यावरण का संदेश देने के लिए सिंधी समाज एक ही स्थान पर होलिका दहन करता है। होली कच्चे स्थान पर जलाई जाती है, ताकि सड़क न खराब हो। राह बाधित न हो। होलिका दहन पर हर घर की महिलाएं आकर गेयर (बड़ी जलेबी), सिंधी समोसा, गुझिया, रेवड़ी और लइया चढ़ाती हैं। दहकती होलिका में रोट (गुड़ आटे की रोटी) का भोग लगाती हैं। अगले दिन महिला पुरुष बिना किसी विभेद के एक साथ फाग गाते हुए रंगोत्सव मनाते हैं। सबसे अहम, अगले दिन होली पंचायत बैठती है। बुजुर्ग इसके पंच होते हैं। यहां परिवार मन्नत मांगता है। मान्यता है, बड़ों से मांगी गई मन्नत हमेशा पूरी होती है। पंचायत में पूरा समाज एक साथ बैठकर खाना खाता है।

पहाड़ी होली : ढोल से गूंजे पहाड़ तो समझो होली है

ढोल की थाप और गीत के बोल पहाड़ से टकराकर प्रकृति को संगीतमय कर दें, ऐसी पहाड़ की होली है। कानपुर में पहाड़ तो नहीं हैं लेकिन शहर की दो हजार की आबादी वाला कुमाऊंनी समाज अपनी विरासत सहेजे हुए है। वसंत पंचमी पर अपने हाथ से बनी ढोल पर थाप संग गाकर होली की शुुरूआत करते हैं। अल्मोड़ा से आकर कानपुर में बस गए ललित मोहन पाठक बताते हैं, आमल एकादशी पर पहले भगवान के वस्त्र, फिर होली खेलने वाले कपड़े पर रंग डालते हैं। इसके अलावा कपड़े के लंबे टुकड़े यानी चीर को होलिका दहन स्थल पर ले जाने के बाद पेड़ में बांधकर उस पर रंग डालते हैं। यह प्रकृति को अपना मानने का संदेश है। इसके बाद खड़ी होली मनाई जाती है, जिसमें दो दल बनाकर शास्त्रीय गीत गाए जाते हैं। फिर बैठी होली होती है, जिसमें लोगों के घरों में बैठकर होली गीत गाते हैं। फिर महिला होली होती है, जिसमें महिलाएं होली मनाती हैं। आज भी गणेश वंदना से होली गीत शुुरू होते हैं। सूटरगंज, ग्वालटोली, एलनगंज के इलाकों में समूह के रूप में निकलकर होली गायन करते हैं।

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