दिल्ली गेट तन कर खड़ा है। इसके सामने बड़ा सा चौराहा, जिस पर वाहनों का तांता। बेसब्र वाहन चालक तेज रफ्तार से चौराहा पार करने की जुगत में, जैसे लालबत्ती की जद में आ गए तो न जाने मंजिल तक पहुंचने में कितनी देर हो जाए। दिल्ली गेट से सटे जेब्रा क्रांसिंग पर कुछ बच्चे हाथ से इशारा कर वाहनों को रोकने की कोशिश करते हुए सड़क पार करने के प्रयास में हैं। पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली की सरहद पर मौजूद दिल्ली गेट दो संस्कृतियों का भी जैसे बंटवारा करता है।
नई दिल्ली की आलीशान कोठियों और दफ्तरों में आधुनिकता पसरी है। वहीं दिल्ली गेट से भीतर के शहर में आधुनिकता के साथ मान्यताओं और जड़ों के साथ चलने की कोशिश है। लोहे के बाड़े में कैद दिल्ली गेट पर वक्त के थपेड़े दिखने लगे हैं। बुजुर्ग सा, जिसके सामने की हरियाली जगह-जगह पड़े मलबे से ढक गई है। सड़क के उस पार खंडहर सी दीवारें। इसी के अंदर पहले मुगलों की पुरानी दिल्ली बसती थी।
दिल्ली गेट यानी दिल्ली का प्रवेश द्वार। इस गेट के साथ की सड़क से अंदर बढ़ने पर सुभाष मार्ग के दोनों ओर दरियागंज आकार लिए हुए हैं। इस ओर मोटर पार्ट्स व वाद्य यंत्रों की दुकानें, पुरानी इमारतें, रंग-बिरंगी यादों के साथ बंद सिनेमा हॉल, डाकघर और खस्ताहाल पुस्तकालय। पहले की आकर्षक दीवार घड़ियों और आज की जरूरत बन चुके एसी, फ्रिज की कुछ बड़ी दुकानें। यह क्रम लोहे का पुल (जो अब है नहीं) तक चलता है।
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