तख़्त के ऊपर ताज है, नीचे भी कुछ है ! ख़ून पसीना भी लगता है तख़्त सजाने में…

लखनऊ का चुनाव भी निपट गया। धीरे-धीरे पूरे देश में चुनावी शोर थमता जा रहा है। दरी.. टैंट.. होर्डिंग-बैनर.. रोड शो वाली गाड़ियां और हेलीकॉप्टर से लेकर ई रिक्शे का हिसाब भी हो गया। लेकिन कुछ बाक़ी है। चुनाव लड़ाने और जितवाने की कोशिशों में 45 डिग्री तापमान वाली दोपहर की धूप में पसीना बहाने वालों की हड्डियों में दर्द बाक़ी है। धूप से चेहरे काले पड़ गये हैं, चेहरे का वास्तविक रंग आना बाक़ी है। कुछ बीमार हो गये, कुछ ने बिस्तर पकड़ लिया और कुछ ने अस्पताल का वार्ड। इन सबका स्वास्थ्य सामान्य होना बाक़ी है। चुनाव लड़ने वालों में कुछ जीत कर संसद जा सकते हैं। मंत्री भी बन सकते हैं। तख्त ओ ताज भी हासिल कर सकते हैं। लेकिन चुनाव लड़वाने और प्रचार में कड़ी मेहनत करने वालों को कुछ हासिल हो इस बात की गुंजाइश ना के बराबर है। क्योंकि सियासत से बड़ा कोई बेमुरव्वत नहीं होता। एहसानफरामोशी राजनीति की सबसे बड़ी फितरत होती है।

इतिहास गवाह है किसी भी पार्टी के कर्मठ, जुझारू, समर्पित, इमानदारी और अपने खून पसीने से पार्टी के जनाधार की सफल सीचने वालों को ज्यादा कुछ हासिल नहीं होता। जब चुनाव का टिकट बटने का वक्त आता है तो पार्टी विभिन्न क्षेत्रों के सेलीब्रिटी ढूंढ कर लाती है। सैलीब्रेटी, धनागढ़ या दलबदलु एक दिन पार्टी ज्वाइन करते हैं और दूसरे दिन उनसे चुनाव लड़ने के लिए पर्चा भरवा लिया जाता हैं। हांलाकि अपवाद स्वरूप कुछ अच्छे प्रत्याशी भी चुनावी मैदान में उतारे जाते हैं। अच्छे प्रोडक्ट की भी मार्केटिंग और ब्रांडिग नहीं हो तो जनता उसकी खूबियों को कैसे समझेगी ! कैसी उसपर विश्वास करेगी ! किसी भी पार्टी का स्थानीय नेता/कार्यकर्ता या काडर ही उम्मीदवार को जनता के बीच पेश करता है। बस ये काम सलीखे से हो जाये तो चुनाव प्रचार में ही आधी जीत पक्की हो जाती है। ऐसा महत्वपूर्ण काम करने वाले पार्टी कॉडर की समाज में पंहुच हो और वो पसीना बहाना जानता हो तो पार्टी को अपने ऐसे सिपासालारों को सिर आंखों से लगाना चाहिए है। जो पार्टी अपने वर्कर के पसीने का अहसास नहीं करती उस पार्टी के जनाधार की फसल सूख जाती है।

कई मिसालें हैं। इस तस्वीर में देखिये। लखनऊ में कांग्रेस उम्मीदवार प्रमोद कृष्णम के चुनाव प्रचार में पसीना बहाने वाले शख्स का नाम सुशील दुबे हैं। इन्होंने तीन दशक से ज्यादा जिन्दगी का वक्त कांग्रेस पर न्योछावर कर दिया। इन साहब ने यूपी में कांग्रेस की बहारें भी देखीं और पतझड़ भी। सत्तानशीन भाजपा पार्टी ज्वाइन करने के प्रस्ताव भी आये लेकिन कांग्रेस के प्रति वफादारी ने दलबदलु बनना स्वीकार नहीं किया। संगठन विहीन कांग्रेस के लिए यूपी में चुनावऔर भी मुश्किल हो गया था। एंटीइंकमबैंसी के बावजूद मोदी मैजिक अभी पूरी तरह से फीका नहीं पड़ा है। यूपी में स्थापित सपा, बसपा और रालोद गठबंधन यहां सब पर भारी पड़ रहा है। फिर भी एक यूपी की राजधानी की सीट की लड़ाई पर चर्चा चौका रही है। चर्चा ये कि लखनऊ में कांग्रेस ने फाइट की।
एक तरफ भाजपा के गढ़, अटल की विरासत और भाजपा के टाप थ्री कद्दावर नेता राजनाथ सिंह। दूसरी तरफ यूपी में स्थापित तीन क्षेत्रीय दल- सपा, बसपा और रालोद का जबरदस्त गठबंधन की प्रत्याशी पूनम सिंहा। लखनऊ सीट पर भाजप के प्रचार के लिये राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के दिग्गज राष्ट्रीय नेताओं की फौज। राजनाथ के समर्थन में उलमा की परेड। फतवे और फाइव स्टार होटलों में प्रमुख धार्मिक नेता की प्रेस कांफ्रेंस।

सपा उम्मीदवार पूनम सिंहा के प्रचार में सपा अध्यक/पूर्व मुख्यमंत्री और लोकप्रिय नेता अखिलेश यादव। नामचीन फिल्म स्टार शत्रुघ्न सिंहा भी अपनी पत्नी पूनम सिन्हा को जिताने के लिए लखनऊ में डटे। पूनम सिन्हा की बेटी और लोकप्रिय तारिका सोनाक्षी सिन्हा ने भी अपनी मां के लिए रोड शो किया।
प्रियंका गांधी और राहुल गांधी समय अभाव में कांग्रेस प्रत्याशी आचार्य प्रमोद कृष्णम के प्रचार/रैली/रोड शो के लिए लखनऊ नहीं आ सके। राहुल या प्रियंका में कोई भी लखनऊ उम्मीदवार के प्रचार में लखनऊ आ जाता तो बात ही कुछ होती।

इसके बावजूद चौकाने वाली बात ये है कि लखनऊ में कांग्रेस प्रत्याशी आचार्य प्रमोद कृष्णम लड़ाई में आगे दिखे।
शायद इसलिए क्योंकि इनको कुछ जमीनी नेताओं /कार्यकर्ता ओं का साथ मिल गया। पार्टी के प्रति निस्वार्थ भाव से वफादारी निभाने वाले मिल गये थे। जमीनी मेहनत और संघर्ष करके पसीना बहाने वाले प्रचार के लिये जिस्म जला देने वाली धूप में रवां-दवां घूम रहे थे।
आचार्य को सुशील दुबे जैसा ऐसा चुनावी मैनेजर मिल गया था जिन्हें चुनावी मैनेजमेंट में महारथ हासिल है। जो लखनऊ की जमीनी हकीकत जानते हैं। जो लखनवी मुआशरे की नज्ब पकड़े हैं। जिनको भले ही पार्टी से कुछ ना मिला हो पर उन्होंने अपना पूरा जीवन कांग्रेस पार्टी को दे दिया। अकसर ऐसा होता है- वफादोरों के पसीने का दरिया ही कमजोर से कमजोर पार्टियों की नैया पार लगा देती है।

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