आलंदी गांव के ब्राह्मणों में विसोबा चारी अत्यंत दुष्ट था। वह बालक ज्ञानेश्वर, मुक्तादेवी और सोपान से द्वेष रखता था। एक बार बालिका मुक्ता को मांडा ( पतली रोटी) खाने की इच्छा हुई। तब ज्ञानदेव बर्तन लाने के लिए कुम्हार के पास जाने लगा।
रास्ते में उन्हे विसोबा ने रोका और पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ बालक ज्ञानदेव ने कहा, ‘मांडा बनाने के लिए बर्तन लेने जा रहा हूं’, तब विसोबा भी उनके पीछे जाने लगा। जब ज्ञानदेव ने कुम्हारों से बर्तन मांगा तो विसोबा ने उनको ऐसा करने से मना कर दिया। ज्ञानेश्वर को मन मसोसकर खाली हाथ वापस लौटना पड़ा।
मुक्ता ने जब ज्ञानेश्वर को खाली हाथ देखा, तो पूछा, ‘क्या बर्तन नहीं मिला?’ उन्होंने कहा, ‘आटा गूंधो।’ मगर बर्तन कहां है? मुक्ता ने प्रश्न किया, ज्ञानदेव बोले ‘मेरी पीठ जो है’ और उन्होंने अपनी पीठ सामने कर दी। मुक्ता ने भी देर नहीं की और भाई की पीठ पर ही मांडने सेंकना शुरू कर दिए।
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इनकी खिल्ली उड़ाने के लिए विसोबा ज्ञानदेव के पीठे आकर छिपकर खड़ा हो गया। उसने जब यह चमत्कार देखा तो उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया। उसको काफी पश्चाताप हुआ कि वह बेवजह इन बच्चों का प्रति ईर्ष्याभाव रखता है। उसने ज्ञानदेव के चरण पकड़े और माफी मांगी।
मुक्ता ने जब यह देखा तो समझ गई की विसोबा ने ही कुम्हारों को बर्तन देने से मना किया है। उसने कहा, ‘दूर हो खच्चर पहले तो बर्तन लेने नहीं दिए अब मांडे सेंक रही हूं तो पैर पकड़कर माफी मांग रहा है।’ ज्ञानदेव को मुक्ताई ने शांत किया। विसोबा प्रभु की लीला से प्रभावित हो गया था। उसके स्वभाव में एकदम परिवर्तन आ गया था। आगे चलकर वह ‘विसोबा खच्चर’ के नाम से पहचाना जाने लगा।
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