रक्षा सूत्र के सहारे ही देवताओं ने दानवों पर विजय पाई थी। रक्षा के इस धागे के बंधन में ही मां लक्ष्मी ने भगवान श्री हरि को दानी राजा बलि को दिए वचन से मुक्त करवाया था। रक्षा सूत्र परिवार को आपस में जोड़ने का पर्व है।
रक्षाबंधन रक्षासूत्र बांधने का पर्व है। रक्षासूत्र में न केवल मंत्रों की शक्ति निहित होती है बल्कि उसमें भावनात्मक और आत्मीय बल भी होता है। यह तंतु हमारी आस्था, विश्वास और संबल का प्रतीक बन जाता है। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में कलाई पर रक्षासूत्र बांधते हुए आचार्य संस्कृत श्लोक ‘येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल” का उच्चारण करते हैं।
यह रक्षासूत्र बांधने का अभीष्ट मंत्र है। इसका हिंदी भाव है- ‘जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षासूत्र से मैं तुझे बांधता हूं। तू संकल्प से कभी विचलित न होना।” कहते हैं कि जब वामन अवतार रूपी भगवान विष्णु ने राजा बलि को मनचाहा वर दिया था तो उसने मांगा था कि भगवन आ मेरे यहां ही निवास करें। तब मां लक्ष्मी ने बलि को रक्षासूत्र बांधकर भाई बनाया और बदले में पति को मुक्त करने का वचन लिया। रक्षा पवित्र बंधन से अनेक कहानियां जुड़ी हैं।
राखी का अनूठा त्योहार कब आरंभ हुआ इस बारे में भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि एक बार देव और दानवों के मध्य युद्ध हुआ। दानव देवताओं पर हावी होते नजर आने लगे। भगवान इंद्र घबरा कर देवगुरु बृहस्पति के पास गए। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी यह सब सुन रही थीं। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया।
संयोग यह था कि वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
महाभारत में भी इस पर्व की महत्ता का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर विपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं।
द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
भद्रा में क्यों न बांधें राखी
रक्षाबंधन का पर्व भद्रा रहित अपराह्न व्यापिनी पूर्णिमा में करने का शास्त्र विधान है- ‘भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।” यदि पहले दिन अपराह्न काल भद्रा व्याप्त हो तथा दूसरे दिन उदयकालिक पूर्णिमा तिथि तीन मुहूर्त या तीन मुहूर्त से अधिक हो, तो उसी उदयकालिक पूर्णिमा (दूसरे दिन) के अपराह्न काल में रक्षाबंधन करना चाहिए। चाहे वह अपराह्न से पूर्व ही क्यों न समाप्त हो जाए। परंतु यदि आगामी दिन पूर्णिमा तीन मुहूर्त से कम हो, तो पहले दिन भद्रा रहित प्रदोष काल में यह पर्व मनाने का विधान कहा गया है। राखी भद्रा काल में नहीं बांधना चाहिए। इस समय रक्षाबंधन करने पर दोष लगता है और भाई के लिए मांगी गई प्राथनाएं असर नहीं करती हैं। इसलिए भद्रा काल समाप्त होने के पश्चात ही राखी बांधना शुभ होता है।
द्विजों के उपकर्म का पर्व
उत्तराखंड में रक्षाबंधन को श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्योहार माना जाता है। वृत्तिवान ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा प्राप्त करते हैं। अमरनाथ यात्रा भी रक्षाबन्धन के दिन पूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन पवित्र गुफा का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्ना करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं।
रक्षाबंधन 18 अगस्त को
इस वर्ष रक्षाबंधन का त्योहार 18 अगस्त को मनाया जाएगा। पूर्णिमा तिथि का आरंभ 17 अगस्त 2016 को दोपहर बाद से आरंभ होगा किंतु भद्रा व्याप्ति रहेगी इसलिए शास्त्रानुसार यह त्योहार 18 तारीख को मनाना ही श्रेष्ठ है। वैसे भी हमारे यहां उदयातिथि ही मान्य होती है। निर्णय सिंधु कहता है कि यदि परिस्थितिवश भद्राकाल में यह कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल में इसे करना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार भद्रा के पुच्छ काल में कार्य करने से कार्यसिद्धि और विजय प्राप्त होती है। परंतु भद्रा के पुच्छ काल समय का प्रयोग शुभ कार्यों के लिए विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार भद्रा सूर्य की पुत्री हैं और शनि की बहन। ब्रह्माजी ने इनके जन्म के समय कहा था। इनका जन्म ब्रह्मा के क्रोध से हुआ था। ब्रह्मपुराण में उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा से और सूर्यपुराण में सूर्य बताई गई है।
शनि की तरह वे भी उग्र स्वभाव की हैं। ब्रह्मा ने भद्रा को कहा था कि तुम पंचांग निर्माण में आड़े आओगी या तुम्हारी मान्यता होगी। तुम्हें वर्जित करके ही कोई कार्य होगा। तुम आकाश, पाताल और मृत्युलोक में रहोगी। भद्रा के समय कोई भी शुभ कार्य या संस्कार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम भी सामने आते हैं।
क्या होना चाहिए पूजा की थाली में
रक्षाबंधन पर भाइयों की कलाई पर राखी बांधते हुए बहनों को थाली में कुछ चीजों के होने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। थाली में राखी, अक्षत-कुंकु, नारियल, मिष्ठान्ना, सर ढंकने के लिए टोपी या कपड़ा और आरती उतारने के लिए दीपक।