जानिये- आखिर क्यों चर्चा में है असम का बोरडुआ इलाका, हिंदुओं से है इसका खास रिश्ता

असमिया भाषा के ख्यात कवि, नाटककार, गायक, नर्तक, समाज संगठक तथा हिन्दू समाज सुधारक के रूप में माने जाने वाले महापुरुष शंकरदेव की कर्मस्थली है नवगांव जिले का बोरडुआ। 15वीं शताब्दी में जब असम सहित संपूर्ण पूर्वी भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक वातावरण में काफी असंतोष फैला हुआ था। लोग कर्म-कांड के बोझ तले आम आदमी दबे हुए थे। ऐसे वक्त श्रीमंत शंकर देव ने यहीं से जन जागरण अभियान शुरू किया था।

धार्मिक आंदोलन की शुरुआत: उनके द्वारा चलाए गए व्यापक धार्मिक आंदोलन को ही नव वैष्णव धर्म की संज्ञा दी गई। इसका मूल स्वरूण वैष्णव धर्म का ही था, लेकिन महापुरुष शंकरदेव ने इसमें अन्य समुदाय के संस्कारों को भी शामिल कर नया स्वरूप दिया। साथ ही वैष्णव भक्ति का द्वार सभी के लिए खोल दिया।

निगरुण भक्ति की तरह समान अधिकार: शंकरदेव के द्वारा चलाए गए नव वैष्णव धर्म भक्ति मार्ग में सभी प्रकार के जाति एवं समुदायों का एक समान अधिकार था। उन्होंने कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग को आधार बनाकर सभी को समान अधिकार दिए जाने की पैरवी की। भक्ति को एक वर्ग विशेष के चंगुल से निकालकर सर्वव्याप्त किया। जन्मतिथि को लेकर अलग -अलग मत: श्रीमंत शंकरदेव का जन्म असम के नवगांव जिले की बॉरडुआ के पास आलिपुखुरी गांव में हुआ था। इनकी जन्म तिथि को लेकर अलग-अलग मत है, हालांकि यह 1371 शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन बाद ही उनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। 21 वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ विवाह हुआ, लेकिन बेटी को जन्म देने के बाद वे भी चल बसीं।

32 साल की उम्र में पली तीर्थ यात्र: शंकरदेव ने 32 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थ यात्र आरम्भ की। उत्तर भारत के समस्त तीर्थो का दर्शन किया। रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी से भी उनका साक्षात्कार हुआ था। तीर्थ यात्र से लौटने के बाद शंकरदेव ने 54 वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। यहां से उनकी अगली यात्र शुरू हुई।

विरोध के बाद अहोम राज्य में प्रवेश किया: शंकरदेव ने 1438 शक में भुइया राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विद्वान लगातार उनका विरोध कर रहे थे। राज दरबार में शिकायत के बाद जांच शुरु हुई। तब अहोम राजाओं ने उन्हें निदरेष घोषित कर दिया।

18 साल बाद छोड़ा अहोम राज्य: शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में 18 वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। 67 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। 97 वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्र आरम्भ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अíपत की। बताया जाता है कि वे 119 साल तक जीए। कूचबिहार में 1490 शक में उनका निधन हुआ।

मूर्ति पूजा के बजाय ग्रंथ की भक्ति: संत शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एक शरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है।

नवगांव के सीईओ अरुप कुमार शर्मा ने बताया कि असमवासियों की लंबे समय से मांग थी कि शंकरदेव जिस जगह पर बैठकर प्रवचन देते थे। जनोत्थान के लिए परिचर्चा व नाटक तक करते थे। उस जगह को असमिया में थान कहा जाता है। उन्हें विकसित किया जाए। केंद्र सरकार ने 118 करोड़ की लागत से उस जगह को विकसित करने की घोषणा की है।

 

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