फिल्मों में आपने कई बार देखा होगा कि जब नेता किसी परेशानी में फंसते हैं, तो अचानक उनके सीने में दर्द शुरू हो जाता है. भारतीय फिल्मों का यह बेहद प्रचलित दृश्य आज नेपाल (Nepal) में दिखाई दे रहा है. फर्क बस इतना है कि किरदार काल्पनिक नहीं बल्कि असली हैं. चीन की कठपुतली बनने के चक्कर में अपनी कुर्सी दांव पर लगाने वाले केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli) को मंगलवार को सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

हालांकि, इसे एक पॉलिटिकल स्टंट के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि ओली मौजूदा संकट से निकलने के लिए कुछ समय चाहते हैं और वह जानते हैं कि बीमारी के नाम पर उन्हें यह आसानी से मिल सकता है. मंगलवार के इस ‘नाटक’ के बाद बुधवार को वह एक संभावित ‘अविश्वास मत’ से बचने में सफल रहे. बुधवार सुबह जब नेपाल संसद का सत्र चल रहा था, तब ओली इसे टालने की कवायद में जुट गए. उन्होंने नेपाल की राष्ट्रपति से मुलाकात की, और उनसे सत्र को भंग किए बिना कुछ समय देने का आग्रह किया. प्रधानमंत्री की यह इच्छा पूरी हुई और इस तरह कॉमरेड ओली अपनी ही पार्टी के सदस्यों से अविश्वास प्रस्ताव से बचने में कामयाब रहे.
ओली को अपनी ही पार्टी के भीतर विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है. पुष्पा कमल दहल उर्फ़ प्रचंड (Pushpa Kamal Dahal) के साथ उनके मतभेद इतने बढ़ गए हैं कि प्रचंड अब उन्हें PM की कुर्सी पर नहीं देखना चाहते. प्रचंड दो बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. प्रचंड और ओली 2016 में गठबंधन के साथी थे, लेकिन बाद में अलग हो गए. 2018 में, उन्होंने अपनी पार्टियों का विलय किया और नेपाल की दो कम्युनिस्ट पार्टियां एक रूप में देश के सामने आईं. किसी अरेंज मैरिज की तरह नजर आने वाले इस रिश्ते में चीन ने मैचमेकर की भूमिका निभाई थी. हालांकि, चीन निर्मित माल की तरह इस रिश्ते की मियाद भी ज्यादा नहीं रही.
फिल्मों में आपने कई बार देखा होगा कि जब नेता किसी परेशानी में फंसते हैं, तो अचानक उनके सीने में दर्द शुरू हो जाता है. भारतीय फिल्मों का यह बेहद प्रचलित दृश्य आज नेपाल (Nepal) में दिखाई दे रहा है. फर्क बस इतना है कि किरदार काल्पनिक नहीं बल्कि असली हैं. चीन की कठपुतली बनने के चक्कर में अपनी कुर्सी दांव पर लगाने वाले केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli) को मंगलवार को सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था.
हालांकि, इसे एक पॉलिटिकल स्टंट के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि ओली मौजूदा संकट से निकलने के लिए कुछ समय चाहते हैं और वह जानते हैं कि बीमारी के नाम पर उन्हें यह आसानी से मिल सकता है. मंगलवार के इस ‘नाटक’ के बाद बुधवार को वह एक संभावित ‘अविश्वास मत’ से बचने में सफल रहे. बुधवार सुबह जब नेपाल संसद का सत्र चल रहा था, तब ओली इसे टालने की कवायद में जुट गए. उन्होंने नेपाल की राष्ट्रपति से मुलाकात की, और उनसे सत्र को भंग किए बिना कुछ समय देने का आग्रह किया. प्रधानमंत्री की यह इच्छा पूरी हुई और इस तरह कॉमरेड ओली अपनी ही पार्टी के सदस्यों से अविश्वास प्रस्ताव से बचने में कामयाब रहे.
ओली को अपनी ही पार्टी के भीतर विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है. पुष्पा कमल दहल उर्फ़ प्रचंड (Pushpa Kamal Dahal) के साथ उनके मतभेद इतने बढ़ गए हैं कि प्रचंड अब उन्हें PM की कुर्सी पर नहीं देखना चाहते. प्रचंड दो बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. प्रचंड और ओली 2016 में गठबंधन के साथी थे, लेकिन बाद में अलग हो गए. 2018 में, उन्होंने अपनी पार्टियों का विलय किया और नेपाल की दो कम्युनिस्ट पार्टियां एक रूप में देश के सामने आईं. किसी अरेंज मैरिज की तरह नजर आने वाले इस रिश्ते में चीन ने मैचमेकर की भूमिका निभाई थी. हालांकि, चीन निर्मित माल की तरह इस रिश्ते की मियाद भी ज्यादा नहीं रही.
चीन का बढ़ता दखल
नेपाल में चीन के राजदूत होउ यानकी (Hou Yanqi) का देश की राजनीति में गहरा दखल हो गया है. उन्हें कई मौकों पर नेपाल के शीर्ष राजनेताओं के साथ देखा गया है. एक रिपोर्ट के अनुसार, चीनी राजदूत ने मई में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक की और उन्हें एक-दूसरे से लड़ने के बजाय साथ काम करने के लिए राजी किया. संभव है कि इस हस्तक्षेप से ओली को कुछ मदद मिली हो, लेकिन अब स्थिति बहुत अलग है.
वैसे चीन का प्रभाव केवल नेपाल की राजनीति तक सीमित नहीं है. 2019 में, चीन और नेपाल के बीच 1.5 बिलियन का व्यापार था. चीन नेपाल में पर्यटकों का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है. वह आर्थिक सहायता के नाम पर नेपाल में अपनी दखल बढ़ाना चाहता है और ओली सरकार के रहते वो इसमें कामयाब भी हो रहा है. 2015 में भूकंप के बाद चीन ने 25 पुनर्निर्माण परियोजनाओं का ठेका उठाया. यह चीन के प्रभाव का ही असर है कि पिछले साल नेपाल के कई निजी स्कूलों ने छात्रों के लिए मंडारिन भाषा को अनिवार्य विषय बनाया था. सोचने वाली बात यह है कि आखिर नेपाली छात्रों को चीनी भाषा पढ़ने की ज़रूरत क्या है? क्योंकि चीन ने नेपाल के लिए एक दीर्घकालिक योजना तैयार की है. रिपोर्टों में यहां तक कहा गया है कि चीनी सरकार ने मंडारिन अनिवार्य करने वाले स्कूलों के शिक्षकों की सैलरी देने की भी पेशकश की है.
चीन अपनी इन्हीं योजनाओं की आड़ में नेपाल के कई हिस्सों को कब्जा चुका है, लेकिन ओली सरकार खामोश है. साथ ही वह बीजिंग के इशारे पर भारत से सीमा विवाद को तूल दे रही है. यही वजह है कि नेपाल में ओली के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है. पार्टी के अधिकांश सदस्य अब उन्हें PM की कुर्सी पर देखना नहीं चाहते, इसीलिए वह किसी न किसी तरह से कुछ समय चाहते हैं ताकि संकट से बचने का उपाय खोजा जा सके.
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