जलियांवाला बाग का नरसंहार भारतीय आजादी के इतिहास में कई तरह से एक अहम मोड़ साबित हुआ। जिन परिस्थितियों में यह हुआ, इसके बाद जो अपमान व अत्याचार पंजाब के लोगों ने झेले, उनके घाव आज भी दिलों में रिसते हैं। ऐसा ही एक घाव रहा हिंदू-मुस्लिम एकता में दरार पैदा करना। स्पष्ट रूप से अंग्रेज भारतीयों में फूट डालकर अपनी हुकूमत को मजबूत रखना चाहते थे, लेकिन अप्रैल 1919 से पहले पंजाब में हिंदू- मुस्लिम- सिख एकता उन्हें गली-गली में दिखाई देती थी और यही बात उन्हें परेशान कर रही थी।
सत्याग्रह से भी जुड़ती है नरसंहार की कहानी
नरसंहार की कहानी अविभाजित भारत की दास्तान है। इसकी कड़ी महात्मा गांधी द्वारा रोलेट एक्ट के विरुद्ध शुरू किए गए सत्याग्रह से भी जुड़ती है। सत्याग्रह की चिंगारी का असर पंजाब के लोगों पर सबसे ज्यादा हुआ था। वे आए दिन दुकानें व शहर बंद कर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। पंजाबियों में गुस्सा इसलिए भी था कि यहां जबरन लोगों को सेना में भर्ती किया गया था। महंगाई आसमान छू रही थी। महामारी में काफी संख्या में लोगों की मौत हुई थी।
इस माहौल में भी हर बगावत को, जैसे गदर आंदोलन को, तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ ड्वायर कुचल देना चाहता था। वह लाहौर में रहता था और उसे हिंदू-मुस्लिम एकता बहुत कचोटती थी। हिंदू और मुस्लिमों का एक ही प्याले से पानी पीना, हाथों में हाथ डाल गलियों में ‘हिंदू-मुसलमान की जय’ के नारे लगाते हुए गुजरना उसके लिए बेहद नागवार था। उसे इन हरकतों में आने वाली क्रांति का अंदेशा हो रहा था और 1857 के गदर की सी बू आती थी।
रामनवमी शोभायात्रा में मुस्लिमों का शामिल होना डीसी को खटका
1919 में मार्च के अंत व अप्रैल के शुरू में जब रोलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह ने जोर पकड़ा तो अमृतसर में इसका नेतृत्व एक मुस्लिम डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा हिंदू डॉ. सतपाल ने किया। इस पर 9 अप्रैल को आयोजित श्री रामनवमी की शोभायात्रा का आयोजन भी एक मुस्लिम डॉ. बशीर द्वारा किया जाना अंग्रेज हुकूमत को बिल्कुल रास न आया। लोग सांप्रदायिक सौहार्द का प्रदर्शन करते हुए जुलूस में शामिल हुए। हालांकि, उन्होंने इस दौरान अंग्रेज अधिकारियों की मौजूदगी को शांतिपूवर्क स्वीकारा। फिर भी उपायुक्त माइल्स इरविंग को शक हुआ कि यह एकता केवल जुलूस तक सीमित नहीं है, बल्कि अंग्रेज शासन को खत्म करने की ओर कदम है। यही कारण रहा कि उस दिन से उसका सत्याग्रहियों पर शक बढ़ने लगा।
लाहौर में भी था ऐसी ही एकता का नजारा
इसी तरह की एकता का नजारा लाहौर में भी देखने को मिल रहा था। वहां हिंदू व सिख बंधु बादशाही मस्जिद में जाकर राजनीतिक घोषणाएं कर रहे थे। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में मंदिरों में जाकर मुस्लिम सभाओं को संबोधित कर रहे थे। देश में एकता की एक अनोखी बयार बह रही थी, जो अंग्रेजों के लिए चिंता का सबब बन गई थी। हालांकि बंबई (अब मुंबई) जैसे शहर में इसे बर्दाश्त किया जा रहा था, लेकिन ओ ड्वायर जैसे कठोर शासकों को यह एकता डरा रही थी।
भारतीयों को जलील किया, यातनाएं दीं
यही कारण रहा कि 9 अप्रैल 1919 के बाद हिंदू, मुस्लिम तथा सिख नेताओं की गिरफ्तारियां तेज कर दी गईं। उन्हें जलील किया गया, यातनाएं दी गईं और यह कुबूल करवाने का प्रयत्न हुआ कि वे हुकूमत के विरुद्ध क्रांति की योजना बना रहे थे। जनता, जो अब तक महात्मा गांधी के सत्याग्रह से जुड़ चुकी थी, अब विद्रोह पर उतर आई थी। यही सब अंतत: 13 अप्रैल 1919 के नरसंहार का कारण बना। इसके बाद भी अंग्रेजों के जुल्म थमे नहीं। दुखद यह भी है कि उस दौरान हिंदू-मुस्लिम- सिख एकता संभवत: अविभाजित पंजाब में आखिरी बार दिखी थी।