गोपालदास नीरज : कानपुर से लड़ा था चुनाव, दिया था ऐसा नारा कि गए हार

1967 के आम चुनाव में गोपाल दास ‘नीरज’ कानपुर लोकसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे थे। अपनी चुनावी सभा में उन्होंने लोगों से अपील की थी कि जो भी भ्रष्ट हों या चोर हों वे उन्हें वोट न दें। बस यही एक बात जनमानस को घर कर गई। और वह 60 हजार वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे।

कानपुर के नाम लिखी थी पाती
कानपुर! आह आज याद तेरी आई फिर… स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती हैं, आंख पहले भी यह रोयी थी बहुत तेरे लिये अब तो लगता है बरसात हुयी जाती है…तू क्या रूठा ? मेरे चेहरे का रंग रूठ गया तू क्या छूटा मेरे दिल ने ही मुझे छोड़ दिया,इस तरह गम में बदली हुयी हर एक ख़ुशी जैसे मंडप में ही दुल्हन ने हो दम तोड़ दिया प्यार करके भी मुझे भूल गया तू लेकिन मैं तेरे प्यार का एहसान चुकाऊं कैसे ? जिसके सीने में लिपट कर आँख है रोई सौ बार ऐसी तस्वीर से ये आंसू छिपाऊ कैसे?

इसके आगे भी बहुत लाइनें हैं… जिनको बार-बार पढऩे का मन आपका करेगा। क्योंकि उनकी ये पंक्तियां उन्होंने कानपुर के लिए एक पत्र में लिखी थीं।
कानपुर के प्रति उनके लगाव को जाहिर कर रही हैं। गीतकार और कविवर गोपाल दास ‘नीरज’ का कानपुर से गहरा नाता रहा। कानपुर में उन्होंने 50 से ज्यादा कवि सम्मेलनों और दर्जनों कार्यक्रमों में पार्टिसिपेट किया। उन्होंने अपनी कई कविताओं में भी कानपुर के बारे में जिक्र किया। समाजसेवी मनोज त्रिपाठी बताते हैं कि डीएवी कॉलेज से 1951 में बीए और 1953 में हिंदी से एमए करने के बाद उन्होंने नौकरी ज्वाइन की और कविताएं लिखते रहे। 17 सितंबर 2017 को वो डीएवी कॉलेज में आयोजित सम्मान समारोह में शिरकत करने आए थे। इस मौके पर उनको सम्मान किया गया। वो काफी भावुक हो गए थे। उन्होंने कहा था कि ये शहर को मैं कभी भूल नहीं सकता हूं। ये मेरा अपना है था और रहेगा। कवियत्री कमल मुसद्दी बताती हैं कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और आकाशवाणी श्रीनगर की ओर से पिछले साल श्रीनगर में कराए गए कवि सम्मेलन में उनके ही गीत मंच पर बजते रहे। उनका शहर में कई अपने थे। जिन पर उन्होंने दिल को छूने वाली कई रचनाएं लिखीं।

कविता के एक युग का हो गया अंत…
गोपाल दास ‘नीरज’ का इस दुनिया से जाना एक युग का अंत है। मैंने दो दर्जन से ज्यादा कवि सम्मेलनों में उनके सानिध्य को प्राप्त किया। पं. नरेंद्र शर्मा बताते हैं कि करीब 20 साल पहले बिहार की कोसी नदी में आई बाढ़ के बाद उन्होंने एक कवि सम्मेलन में एक कविता सुनाई थी जिसको मैं आज तक नहीं भूल पाया… उनकी चंद लाइनें थीं नदी के बाद अब आंसुओं की बाढ़ आई है… मतलब बाढ़ के बाद का भयावह मंजर उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से बताया तो हर किसी की आंखें नम हो गई। समाज में अचानक आए बदलाव पर उनकी कविता हाय ये कैसा सावन आया, पंछी गाना गाना भूल गए, बुल-बुल भूली प्रेम तराना, कोयल गाना भूल गई… जिसको भुलाया नहीं जा सकता।

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