ओमप्रकाश तिवारी। मैं मुंबई हूं। आजादी की लड़ाई में गांधी ने घूमा तो पूरा देश। लेकिन खूबसूरती के कसीदे तो उन्होंने मेरे ही पढ़े। पढ़ते भी क्यों न? मैं उनके दूसरे घर जैसी जो बन गई थी। आजादी की लड़ाई के ज्यादातर अहम आंदोलनों का बिगुल तो उन्होंने यहीं से फूंका।
आजादी की लड़ाई के दौरान जब-जब पैसों की जरूरत महसूस हुई, बढ़-चढ़कर उन्हें मदद की। लोकमान्य तिलक के निधन के ठीक एक साल बाद गांधी ने ‘तिलक स्वराज फंड’ की स्थापना की। ‘एक करोड़’ की भारी-भरकम रकम इकट्ठा करने का संकल्प किया। देखते ही देखते 37.50 लाख रुपये जुट गए थे। यही नहीं, दीनबंधु फंड के लिए भी सप्ताहभर में पांच लाख रुपए जुटे थे। तभी तो उन्होंने ‘बॉम्बे इस ब्यूटीफुल’ कहकर मेरी सुंदरता और दानशीलता के कसीदे पढ़े थे।
मैंने गांधी को तब देखा जब वह महज 19 साल के थे। मोहनदास करमचंद गांधी तब महात्मा और बापू नहीं बने थे। वकालत की पढ़ाई के लिए मोहन को लंदन जाना था। चार सितंबर, 1888 को मैंने उन्हें भाप से चलनेवाले पानी के जहाज पर विदा किया था। जहाज का नाम था क्लाइड। तीन साल बाद, पांच जुलाई, 1891 को उनके लौटने पर भी एक मां की तरह आंचल फैलाए उनके स्वागत को तैयार थी। यह बात और है इन तीन वर्षों की पढ़ाई के बाद घर पहुंचने पर वह अपनी मां को दुबारा देख नहीं सके। क्योंकि उनका निधन हो चुका था। उसके बाद अप्रैल, 1893 में दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना होना, फिर वहां से कलकत्ता (कोलकाता) होते हुए 1896 में फिर यहां आना, सब मुझे याद है।
दक्षिण अफ्रीकी हिंदुस्तानियों की लड़ाई को किसी हद तक किनारे लगाने के बाद नौ जनवरी, 1915 को वह देश के स्वतंत्रता संग्राम में रच-बस जाने का संकल्प लेकर फिर यहां आ गए। छह अप्रैल, 1919 को रौलट एक्ट का विरोध करने के लिए देश का आह्वान किया और मणि भवन से पैदल ही गिरगांव चौपाटी की ओर चल पड़े। तब उनके साथ हजारों लोग चौपाटी पर जमा हो गए थे। यहीं से पूरे देश में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ की अलख जगा दी थी। सच कहूं तो इसी घटना के बाद देश आश्वस्त हो गया था कि ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देनेवाले तिलक का उत्तराधिकारी मिल गया है।
उन्होंने यहीं विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। देश के पहले खादी भंडार का उद्घाटन भी 19 जून, 1919 को उन्होंने यहीं कालबादेवी में किया था। 1931 में इंग्लैंड में हुए गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए भी वह यहीं से रवाना हुए। और वहां से लौटने के बाद मणिभवन की छत से गिरफ्तार भी उन्हें यहीं किया गया।
हमारी हवा में कुछ तो विशेष उन्हें लगता ही रहा होगा, जो 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ जैसे कारगर नारे देने के लिए भी उन्हें मुझे ही चुना और फिर यहीं से आठ अगस्त की रात कई महत्वपूर्ण नेताओं के साथ गिरफ्तार भी कर लिए।
आखिरी बार मैंने उन्हें1946 में देखा। 31 मार्च, 1946 को वह कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट की बैठक में हिस्सा लेने आए थे। तब वह वरली की हरिजन बस्ती में रुके थे। अफसोस, कि तभी कुछ लोगों ने उनकी कुटिया को आग लगाने का असफल प्रयास किया था। और इसके बाद गांधी कभी इस ओर नहीं आ सके।