केजरीवाल ने साबित कर दिया कि ‘कोड़ियों’ के जरिए भी सत्ता बदली जा सकती

2013 का विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी (आप) के लिए आसान नहीं था। चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं था। धन बल और बाहुबल का हिसाब भी नहीं बन सका। भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से राजनीति में कदम रखने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले विधानसभा चुनाव को काफी हद तक आंदोलन की तरह लिया। उन्होंने साबित कर दिया कि ‘कोड़ियों’ के जरिए भी सत्ता बदली जा सकती है।
‘आप’ ने केवल 14 करोड़ रुपये में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा। 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और 28 सीट भी जीत लीं। नई दिल्ली विधानसभा सीट, जहां पर केजरीवाल की टक्कर कांग्रेस पार्टी की कद्दावर नेता और 15 साल से दिल्ली के मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित से थी। शीला दीक्षित को हराने वाले केजरीवाल का चुनावी खर्च मात्र साढ़े तीन लाख रुपये रहा था। ऐसा नहीं है कि उस वक्त सभी राजनीतिक दल और उनके नेता केजरीवाल की रणनीति पर चुनाव लड़ रहे थे।
चुनाव में धन बल और बाहुबल का जबरदस्त बोलबाला था। एक विधानसभा सीट की बात करें, तो वहां कथित तौर पर कम से कम 50 करोड़ रुपये खर्च होना मामूली बात होती थी। भले ही चुनाव आयोग के समक्ष कोई नेता कितना भी हिसाब-किताब देता हो। उस वक्त चुनाव आयोग ने खर्च की सीमा 14 लाख रुपये तय की थी। अप्रत्यक्ष रूप से यह खर्च करोड़ों में जाता है, इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं। वोटरों को लुभाने के लिए तरह तरह के प्रलोभन भी भारतीय राजनीति का हिस्सा रहे हैं।

स्टार प्रचारकों की रैलियों का खर्च अलग से होता है। 2013 के दौरान आप के चुनावी खर्च का ब्यौरा रखने वाले पंकज गुप्ता का कहना था कि आम आदमी पार्टी ने अपने पहले चुनाव में 28 सीटें जीतकर दुनिया के सामने एक उदाहरण पेश किया है। चुनाव आयोग ने भले ही खर्च की सीमा 14 लाख रुपये तय की हो, लेकिन हमारे सभी उम्मीदवार ऐसे थे, जिनका खर्च औसतन सात-आठ लाख रुपये रहा है।

दिल्ली की छोटी-बड़ी कोई भी विधानसभा सीट ऐसी नहीं थी, जहां 14 लाख रुपये खर्च हुए हों। पटपड़गंज सीट, जहां से मनीष सिसोदिया चुनाव जीते थे, उनका खर्च भी 7-8 लाख रुपये से ज्यादा नहीं हुआ। सौरभ भारद्वाज की ग्रेटर कैलाश सीट का खर्च 6-7 लाख रुपये से अधिक नहीं पहुंचा। शाहदरा सीट पर साढ़े पांच लाख, सीमापुरी विधानसभा में चार लाख रुपये और दिल्ली कैंट की सीट पर भी करीब चार लाख रुपये खर्च हुए थे।

पूर्वी दिल्ली की अधिकांश सीटों का खर्च भी औसतन पांच-छह लाख रुपए रहा। इस खर्च में पार्टी की नुक्कड़ जनसभाएं, माइक, कुर्सियां और पंपलेट जैसी चुनावी सामग्री शामिल रहीं। अपने पहले चुनाव में आप को करीब बीस करोड़ रुपये चंदे में मिले थे। इसमें भी 30-40 फीसदी राशि बच गई। उस वक्त आप को जो भी चंदा मिलता था, वह पार्टी की वेबसाइट पर अपलोड हो जाता था।

उस दौरान जनता का एक बड़ा तबका आम आदमी पार्टी को राजनीतिक दल की नजर से न देखकर उसे आंदोलनकारी दल ही समझ रहे थे, उन्होंने पार्टी की बड़ी मदद की। अधिकांश विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जिसमें आसपास के लोगों ने चुनाव प्रचार से संबंधित कोई न कोई जिम्मेदारी उठा रखी थी। नई राजनीतिक पार्टी होने के कारण आप के पास कार्यकर्ताओं की भारी कमी थी। भरोसेमंद कार्यकर्ताओं का अभाव रहा। नतीजा, आप को अपने सभी बूथों के लिए कार्यकर्ता तक नहीं मिल सके।

दिल्ली के सभी विधानसभा क्षेत्रों की बात करें तो 11 सौ बूथ ऐसे रहे, जिन्हें संभालने के लिए आप को कार्यकर्ता ही नहीं मिले। अमेरिका, सिंगापुर, ब्रिटेन, दुबई, आस्ट्रेलिया, यूएई व हांगकांग सहित दर्जनभर देशों में आप के वालंटियर फोन पर दिल्ली के वोटर्स से केजरीवाल को वोट देने की अपील कर रहे थे। इनके अलावा विभिन्न राज्यों से आए करीब 12 हजार वालंटियर्स चुनाव प्रचार में जुटे रहे।

2013 के विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की छवि एक आंदोलनकारी नेता वाली थी। उन्होंने कई ऐसे बयान भी दिए, जो दूसरे दलों के नेताओं को चुभ गए। उनका एक नारा उस वक्त सबसे ज्यादा चला था और उसका नतीजा न केवल उन चुनावों में, बल्कि 2015 के चुनाव में भी सुपरहिट रहा। दरअसल, केजरीवाल ने अपनी जनसभाओं में वोटरों से यह कहना शुरू कर दिया कि देखो हमारी पार्टी तो ईमानदार है। हम दूसरे दलों की तरह चुनाव में अनाप-शनाप पैसा नहीं खर्च कर सकते। दूसरे दलों के लोग आपके पास आएंगे। वे आपको कई तरह के प्रलोभन देंगे। आप मना मत करना, ले लेना, मगर वोट आम आदमी पार्टी को दे देना।

उनका यह बयान नारे की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। केजरीवाल अपनी हर जनसभा में लोगों से यह बात कह देते। विपक्षी दलों ने उनकी इस बात पर एतराज  जताया। चुनाव आयोग को शिकायत भी दी गई। तब तक केजरीवाल अपने मकसद में कामयाब हो चुके थे। शीला दीक्षित सरकार में हैवीवेट मंत्री और विधायक रहे कई नेता चुनाव हार गए थे। राजकुमार चौहान जैसे नेताओं के बारे में कहा जाता था कि वे चुनाव नहीं हार सकते, लेकिन वे भी चारों खाने चित हो गए।

कांग्रेस पार्टी 43 से आठ सीटों पर सिमट गई। इस नारे का असली फायदा केजरीवाल को 2015 के चुनाव में मिला। उस दौरान भी वोटरों तक वही बात पहुंचाई गई कि ले लेना मना मत करना। असर इतना प्रभावी थी कि आप के खाते में बंपर जीत यानी 67 सीट आ गईं।

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