स्वच्छ दून सुंदर दून की बात करने वाले जनप्रतिनिधि ही अगर स्वच्छता के लिए दिए जा रहे बजट की बंदरबांट करने लगे तो सवाल उठेंगे ही। बात हो रही है शहर की स्वच्छता मोहल्ला समिति की। कुछ पार्षदों की पैसा कमाने की भूख इतनी बढ़ गई कि वह सफाई कर्मियों का वेतन ही डकार गए।
समिति में पार्षदों को सफाईकर्मियों की नियुक्ति व वेतन बांटने के अधिकार क्या मिले, पार्षदों ने इसे कमाई का धंधा ही बना डाला। अपने जानने वालों और रिश्तेदारों के नाम स्वच्छता समिति में शामिल कर उनके नाम से प्रतिमाह वेतन डकार किए। इस तरह अब तक लाखों रुपये की हेराफेरी की गई है।
जब मामला सामने आया तो महापौर ने सभी पार्षदों से समिति के इस माह के पूरे रिकार्ड मांग लिए, लेकिन यह सवाल अपनी जगह कायम है कि लाखों की उस धनराशि का क्या होगा, जो पार्षदों ने बीते छह माह में डकारी है। उसकी जांच भी तो कराओ महापौर साहब, ताकि काला-चिट्ठा सामने आ सके।
कांग्रेस में कलह, गरिमा तार-तार
कांग्रेस के वास्तव में बुरे दिन चल रहे। प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद सिर्फ प्रांतीय पदाधिकारियों में ही कलह नहीं चल रही बल्कि यहां तो छोटे-छोटे हितों के लिए शहरी नेता भी एक-दूसरे को नीचे दिखाने से नहीं चूक रहे। बात जब महिला नेताओं की हो तो मुद्दा और गंभीर है। बीते दिनों नगर निगम में कार्यकारिणी के चुनाव प्रक्रिया के दौरान जो कुछ हुआ, उससे कई सवाल उठ रहे।
कांग्रेस की दो महिला पार्षदों में भरे सदन में थप्पड़बाजी हुई और दोनों ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब पार्षद कोमल बोहरा को पार्षद सुमित्रा ध्यानी ने एकाएक तमाचे मारे तो जवाब में कोमल ने भी सुमित्रा के थप्पड़ जड़ दिए। तनातनी केवल कार्यकारिणी सदस्य के टिकट पर थी। जनप्रतिनिधि निजी हितों के लिए किस हद तक पहुंच रहे, यह तो सार्वजनिक हुआ ही, सदन की गरिमा भी तार-तार हो गई।
हम ही तो बसाते हैं बस्तियां
यह हकीकत है कि दून में जितनी भी मलिन बस्तियां बसी हैं वह राजनेताओं ने ही बसाई हैं, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर नेताओं ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि यह बस्तियां उन्होंने बसाई हैं। ये अलग बात है कि जब कभी बस्तियों पर संकट के बादल छाए तो यही राजनेता इनके सरपरस्त बनकर सड़कों पर उतर आए। दून शहर में भाजपा विधायक गणेश जोशी और हरबंस कपूर समेत उमेश शर्मा काऊ को बस्तियों का संरक्षक जबकि कांग्रेस से पूर्व विधायक राजकुमार व प्रदेश वरिष्ठ उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना को इनका सरपस्त माना जाता है।
ये सभी हमेशा बस्तियों को तोड़ने में रोड़ा बने रहे, लेकिन एक ने भी खुद को इनका जनक नहीं माना। इस बार नगर निगम की बोर्ड बैठक में भाजपा विधायक खजानदास ने जब यह माना कि हम ही लोग बस्तियां बसते हैं और वहां बिजली और पानी पहुंचाते हैं, तो यह बात भी साबित हो गई कि बस्तियां वास्तव में इनका वोटबैंक हैं।
क्या वास्तव में बदलते हैं नाम
भाजपा जब सत्ता में होती है तो शहरों और मार्गों के नाम खूब बदले जाते हैं। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के आते ही जिलों के नाम परिर्वतन की परंपरा क्या चली, उससे प्रेरणा लेकर देहरादून नगर निगम ने भी कुछ सड़कों व चौराहों के नाम परिर्वतन करने का एलान कर डाला। वर्षों से जिस चौक को हम सहारनपुर चौक के नाम से जानते हैं, अब निगम उसका नाम भगवान तीर्थकर चौक करने जा रहा।
नेशविला रोड का नाम भी बदलकर शहीद मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल के नाम पर रखने की घोषणा की गई है। इसके साथ ही और भी ना जाने कितने चौक व सड़कों के नाम परिर्वतन करने की योजना है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में कभी नाम बदल पाता है। ज्यादातर लोगों इसका जवाब न में देंगे। क्योंकि लोग तब भी वही नाम लेते हैं, जो पहले था, जैसे लालपुल तिराहा, जिसे वर्षों पहले महंत इंद्रेश चौक घोषित किया गया था।