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सितारे : शिव दर्शन, नताशा फर्नानडिस, उपेन पटेल, सोनी कौर, तलित मोहन तिवारी, रूमी खान, कृष्णा टंडन
निर्देशक-निर्माता-कहानी : सुनील दर्शन
संगीत : नदीम सैफी
लेखक : कुशल बक्शी, उदीप्त गौड़
बॉलीवुड में आजकल 90 के दौर की चीजों को भुनाने का ट्रेंड चल रहा है। उस दौर के हिट गीतों को ठोक-पीट कर नया वर्जन बनाने तक तो बात ठीक है, लेकिन उस दौर की कहानियां और उन्हें बनाने का ढंग अब नहीं चलने वाला। ये बात सुनील दर्शन को तो पता ही होनी चाहिये, क्योंकि एक निर्देशक के रूप में बॉलीवुड में उनकी एंट्री इस दशक के अंतिम वर्षों में ही हुई थी।
1999 में अक्षय कुमार के साथ ‘जानवर’ और 2001 में उन्होंने ‘एक रिश्ता’ जैसी फिल्में बनाई थीं, जो बस उस दौर में चल गयी थीं। ‘जानवर’ ने तो अक्की के लगभग डूब चुके करियर को सहारा दिया था। लेकिन अब सब बदल चुका है, इसलिए ‘एक हसीना थी एक दीवाना था’ को देख कर पल पल हंसी सी आती है और दुख भी होता है कि नए कंटेंट के मद्देनजर आज जब डिजीटल प्लेटफार्म जो कि बॉलीवुड को एक चुनौती सी दे रहा है, ऐसे में आप इस तरह की कहानी, प्रस्तुरितकरण और अभिनय के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं।
ये कहानी है देव (शिव दर्शन) और नताशा (नताशा फर्नानडिस) की। लोकेशन यूनाईटेड किंगडम के किसी पर्यटन स्थल की है, जहां पुराने किले वगैराह और सुनसान महल हैं। ऐसे ही एक महल में नताशा अपने बचपन के दोस्त सनी (उपेन पटेल) के साथ न जाने कहां से लौटी है। कहानी आगे बढ़ती है और दिखाती है कि नताशा और सनी की शादी होने वाली है। महल में नताशा और सनी के अलावा सिंह साहब (तलित मोहन तिवारी) और उनकी एक जवान-हसीन सेक्रेटरी रीटा (सोनी कौर) भी है।
महल का माहौल कुछ अजीब सा है, जिसे देव की एंट्री रहस्मयी बना देती है। नताशा की देव से मुलाकात महल के अस्तबल में होती है, जो बरसों से बंद पड़ा है। मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगता है और नताशा देव से प्यार करने लगती है। एक दिन जब नताशा, देव को अपने जन्मदिन की पार्टी में बुलाती है, तो सबके होश उड़ जाते हैं। सिंह, नताशा को बताता है कि देव तो बरसों पहले मर चुका है। दरअसल ये उसकी आत्मा है, जो लौट आयी है। लेकिन नताशा किसी की बात नहीं मानती।
अगले सीन में नताशा के पिता रमनेक (रूमी खान) की एंट्री होती है, जो नताशा और सनी की शादी जल्द से जल्द कर देना चाहते हैं, लेकिन देव एक दीवार की तरह इनके बीच आ जाता है। बात बढ़ जाती है और सनी के हाथों देव का खून हो जाता है। कुछ दिन बाद एक कार हादसे में देव, नताशा की जान बचाता है और उसे बताता है कि वह कोई आत्मा वगैराह नहीं है, बल्कि यह एक साजिश है, जिसकी शिकार वह खुद बनने वाली है।
शायद इस कहानी से आप अंदाजा लगाएंगे कि यह कोई क्राइम थ्रिलर है, जिसके अंत में कातिल या साजिशकर्ता का राजफाश होगा? या फिर प्रेत आत्मा वाला एंगल, जो इसे हॉरर की तरफ ले जाता है, क्योंकि पाश्र्व में महल भी है। पर पौने दो घंटे की इस फिल्म दिखाए गये छह गीत दर्शाते हैं कि यह एक रोमांटिक मूवी है।
दरअसल पौने दो घंटे की इस फिल्म में से छह गीत, जो करीब 35 मिनट के हैं, अगर निकाल दें तो लगभग एक घंटे की यह फिल्म कंफ्यूजन से ज्यादा कुछ नहीं है। आपको पहले सीन से ही उकताहट सी होने लगेगी, जब देव नताशा को पानी में डूबने से बचाता है और सनी आकर उससे केवल यह पूछता है कि ‘क्या तुम ठीक हो…’ अपनी होने वाली पत्नी को जंगल में अकेले भीगे हुए पड़ा देख कर सनी उससे और कुछ पूछने की जहमत तक नहीं उठाता।
इसके अगले सीन में जब नताशा कपड़े बदल कर महल पहुंचती और फिर एक अन्य सीन में वह देव के साथ वादियों में घोड़े पर बैठ कर बेहिचक रोमांस करती है तो यही से समझ आ जाता है कि निर्देशक अभी भी उसी बीस साल पुराने वाले दौर में हैं और उन्होंने घोड़े वाले सीन को ये सोच कर भुनाने की कोशिश है कि 1987 की अल्डो लाडो की फ्रेंच फिल्म ‘सहारा हीट’ (सिरोको) से कौन वाकिफ होगा।
वाकई 30 साल बाद आज उस चर्चित सीन से कौन वाकिफ होगा। तीन दशक पहले ये फ्रेंच फिल्म ‘प्रात: कालीन शोज’ की जान हुआ करती थी। लेकिन सुनील दर्शन को ये नहीं भूलना चाहिये कि नई पीढ़ी ‘ट्विलाइट’ जैसी सीरिज से अच्छी तरह वाकिफ है और इस सीरिज के हीरो एडवर्ड कुलेन (रॉबर्ट पैटिनसन) को कोई नहीं भूला है। शिव दर्शन को निर्देशक ने एडवर्ड बनाने की भरपूर कोशिश की है। उनका भावहीन चेहरा और लाल सुर्ख होंठ देख कर सिर्फ स्तब्ध हुआ जा सकता है।