उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2022 में साल भर से भी कम समय बचा हुआ है. जातीय और धर्म के इर्द-गिर्द सिमटी राजनीति की धुरी बन चुके उत्तर प्रदेश में सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. सूबे की सत्ता में दोबारा से वापसी को बेताब सपा मुखिया अखिलेश यादव की नजर बसपा सुप्रियो मायावती के वोटबैंक पर है. अखिलेश को दलितों के मसीहा बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर याद आने लगे हैं. पहले अंबेडकर जयंती पर ‘दलित दिवाली’ मनाने की अपील और अब ‘बाबा साहेब वाहिनी’ बनाने का अखिलेश यादव का ऐलान. ऐसे में देखना होगा कि सपा अंबेडकर प्रेम से दलितों के दिल में जगह बना पाएगी?
बता दें कि उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से बसपा का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ. 2017 के चुनाव में बसपा ने सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया था. हालांकि, 2019 लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद लग रहा था कि सपा को यूपी में नंबर दो से बेदखल कर बसपा मुख्य विपक्षी दल की जगह लेगी, लेकिन मायावती न तो सड़क पर उतरीं और न बीजेपी सरकार के खिलाफ उनके वो तेवर नजर आए जिनके लिए वो जानी जाती हैं. ऐसे में मायावती के सक्रिय न होने के चलते उनके दलित वोटबैंक को साधने के लिए सपा ने जोर-आजमाइश तेज कर दी है.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 14 अप्रैल को संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती को दलित दीवाली मनाने का एलान किया है. सपा कार्यकर्ता व नेता पार्टी कार्यालय और अपने घरों-सार्वजानिक स्थलों पर दीप जलाकर बाबा साहब को नमन करेंगे. इतना ही नहीं अखिलेश ने शनिवार को लोहिया वाहिनी की तर्ज पर बाबा साहेब वाहिनी का गठन करने का भी ऐलान किया है. माना जा रहा है कि सपा बाबा साहेब वाहिनी बनाने के बहाने उत्तर प्रदेश में दलित वोटों को सहेजने की कवायद में है.
अखिलेश यादव बाबा साहेब अंबेडकर जयंती के जरिए यह बताने की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उनका ‘दलित प्रेम’ कहीं से भी नया नहीं है बल्कि दलितों के साथ मिलकर काम करना तो उनकी पार्टी के मूल सिद्धांतों में से एक है. अखिलेश ने कहा कि डॉ. राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब ने मिलकर काम करने का संकल्प लिया था और अगर सपा अंबेडकर के अनुयायियों को गले लगा रही है तो बीजेपी और कांग्रेस को इतनी तकलीफ क्यो हो रही है?
उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 22 फीसदी हैं. अस्सी के दशक तक कांग्रेस के साथ दलित मतदाता मजबूती के साथ जुड़ा रहा, लेकिन बसपा के उदय के साथ ही ये वोट उससे छिटकता ही गया. इसके बावजूद बसपा का दलित कोर वोटबैंक है. यूपी का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 12 फीसदी है और दूसरा गैर जाटव दलित है. जाटव वोट बसपा का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिस पर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की नजर पहले से है.
वहीं, सूबे में गैर-जाटव दलित वोटों की आबादी तकरीबन 10 फीसदी है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है. हाल के कुछ वर्षों के चुनाव में देखा गया है कि गैर- जाटव दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग हुआ. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है, लेकिन यह वोटबैंक किसी भी पार्टी के साथ स्थिर नहीं रहता है. इसीलिए गैर-जाटव दलितों को साधने के लिए तमाम कोशिशें विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा की जा रही हैं.
अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कई सियासी प्रयोग कर चुके हैं. कांग्रेस से लेकर बसपा तक से गठबंधन किया, लेकिन बीजेपी को अखिलेश मात नहीं दे सके. ऐसे में अब मायावती की बजाय खुद दलित वोटों को साधने के साथ-साथ अपनी पार्टी के सियासी समीकरण को मजबूत करने की कवायद में जुटे हैं.
भीमराव अंबेडकर को समाजवादियों का आदर्श बताना. वाराणसी में संत रविदास के दर पर मत्था टेकना, और तो और अपने होर्डिंग में भीमराव अंबेडकर की तस्वीर को लगाना. यह इशारा कर रहा है कि अखिलेश ने दलित वोट बैंक को अपने साथ हर हाल में जोड़ने की कोशिशें तेज कर दी हैं. वहीं, अब अंबेडकर जयंती पर सपा कार्यक्रम ही नहीं बल्कि बाबा साहेब वाहिनी का गठन कर दलितों के बीच अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराने की दिशा में भी कदम बढ़ा दिया है. ऐसे में देखना है क सपा का यह राजनीतिक प्रयोग क्या 2022 में सत्ता में वापसी करा पाएगा?
यूपी में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के हाथों में आने के बाद से वह अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही हैं. दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस और प्रियंका गांधी लगातार सक्रिय हैं. इसके अलावा मायावती के दलित वोटर पर भीम आर्मी के चंद्रशेखर की नजर है. इस वोट बैंक पर कांग्रेस की भी नजर है. हाल के दिनों में कांग्रेस ने जिस तरह से यूपी में गैर-जाटव दलितों को संगठन में तवज्जो दी है और उनके मुद्दे को धारदार तरीके से उठाया है. इसके अलावा बीजेपी और अब सपा की नजर भी दलित वोटों पर है, उससे मायावती के लिए आने वाले समय में चुनौती खड़ी हो सकती है