उत्तराखंड परिवहन निगम में हर दूसरे दिन एक बस कंडम हो रही, यानी प्रत्येक माह पंद्रह बसें। तय किलोमीटर और वर्ष के हिसाब से कंडम बसों को बस बेड़े से बाहर कर देना चाहिए, लेकिन निगम ऐसी बसों को घसीटे जा रहा। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यहां नई बसों की खरीद भी मानक के अनुसार नहीं हो रही।
नियमानुसार बेड़े में हर वर्ष 180 नई बसें शामिल करने की जरूरत है, लेकिन हर वर्ष तो दूर की बात, यहां तो पांच-पांच साल तक नई बसों की खरीद नहीं होती। कंडम बसें ही सड़क पर धकेली जा रहीं हैं। ऐसे में चलती बस का स्टेयरिंग अचानक जाम हो जाए या उसकी कमानी टूट जाए, कहा नहीं जा सकता। ये आशंका भी है कि कहीं बस के ब्रेक फेल न हो जाएं और…।
परिवहन निगम के तय नियमानुसार एक बस अधिकतम छह वर्ष अथवा आठ लाख किलोमीटर तक चल सकती है। इसके बाद बस की नीलामी का प्रावधान है, मगर यहां ऐसा नहीं हो रहा। परिवहन निगम के पास 1323 बसों का बेड़ा है। इनमें साधारण व हाईटेक बसों के अलावा 180 वाल्वो और एसी बसें भी शामिल हैं।
इनमें करीब 800 बसें रोजाना ऑनरोड होती हैं, जबकि बाकी विभिन्न कारणों से वर्कशॉप में। इनमें 300 बसें कंडम हो चुकी हैं। इनकी नीलामी हो जानी चाहिए थी, लेकिन निगम इन्हें दौड़ाए जा रहा है।
रोडवेज के सेवानिवृत्त कार्मिक विजय कुमार ममगाई भी मानते हैं कि यहां बसों की खरीद तय प्रक्रिया के तहत नहीं हो रही। उनकी मानें तो एकसाथ नई बसों की खरीद होगी तो ये सभी बसें एक समय पर रिटायर हो जाएंगी। यदि, माहवार खरीद होती रहे, तो निगम आदर्श-स्थिति तक जा सकता है।
इस तरह हुई बसों की खरीद
उत्तराखंड परिवहन निगम में पहला नया बस बेड़ा वर्ष 2004-05 में नारायण दत्त तिवारी सरकार के दौरान जुड़ा। रोडवेज की जर्जर वित्तीय स्थिति देखते हुए सरकार ने 60 करोड़ रुपये नई बसें खरीदने को दिए, जबकि 33 करोड़ की बैंक गारंटी दी। इस बजट से 450 बसें पर्वतीय व मैदानी क्षेत्रों के लिए खरीदीं गईं।
खास बात ये थी कि इसी दौरान परिवहन निगम ने 30 डीलक्स हाईटेक बसें भी खरीदीं। फिर सरकार की नजरें परिवहन निगम से हट गईं और इसी बस बेड़े के जरिए निगम नैय्या पार करने की छटपटाहट में लगा रहा। सवाल उठने लगे तो वर्ष 2011-12 में भाजपा की डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ सरकार ने 280 बसें देकर कुछ सहारा दिया। पुरानी व नई बसों का बेड़ा करीब 1100 पहुंचा, लेकिन वित्तीय स्थिति नहीं सुधरी।
इस बीच निगम ने अनुबंधित बसों का सहारा लिया। इनमें वातानुकूलित और वाल्वो बसें शामिल हैं। जून-2016 तक 1323 बसों के बेड़े से ही सड़क पर चलता आया, मगर वक्त गुजरने के साथ इनमें से 300 बसें कंडम हो गईं। इस अवधि में हरिद्वार महाकुंभ व अर्धकुंभ समेत चारधाम यात्राएं गुजर गईं। 2017 में रोडवेज ने 100 करोड़ रुपये की सरकारी मदद से 483 नई बसें अपने बेड़े में जोड़ी लेकिन इन बसों की खरीद सवालों में घिर गई।
ये बसें आउट-डेटेड यूरो-3 श्रेणी की थी, जबकि भारत सरकार इनकी खरीद पर रोक लगा चुकी थी। अब फिर 300 बसों की खरीद की प्रक्रिया चल रही, लेकिन ये कब मिलेंगी, कहना मुश्किल है।
निगम के महाप्रबंधक का तर्क
परिवहन निगम के महाप्रबंधक दीपक जैन के मुताबिक, तय प्रक्रिया के तहत बसों की खरीद आदर्श-स्थिति में होती है। जब परिवहन निगम मुनाफे में हो और कोई परेशानी न हो। निगम ने बसें तभी खरीदीं जब राज्य सरकार से अनुदान मिला या फिर निगम ने ऋण लिया। निगम जब सालाना नुकसान से बाहर आ जाएगा तो आदर्श-स्थिति के ही अनुसार कार्य किए जा सकेंगे।
रोडवेज में वेतन के लाले आचार संहिता ने बांधे हाथ
सालाना करीब दो सौ करोड़ रुपये के घाटे में चल रहे उत्तराखंड रोडवेज में वेतन के भी लाले पड़ गए हैं। तीन महीने बीतने जा रहा और कर्मचारियों को अब तक जनवरी का वेतन नहीं मिला। इससे कर्मचारियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। खासकर संविदा, विशेष श्रेणी और दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों के परिवारों के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया है।
कर्मचारी यूनियनें आचार संहिता लागू होने के चलते चुप हैं और आंदोलन का नोटिस नहीं दे रही। उधर, कर्मचारियों ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द वेतन न जारी किया गया तो वह नौकरी छोड़ने को मजबूर हो जाएंगे।
रोडवेज कर्मचारी संयुक्त परिषद ने वेतन जारी न होने पर निगम प्रबंधन को मांगपत्र सौंपा है और उत्तरांचल रोडवेज कर्मचारी यूनियन की भी इस मसले पर आइएसबीटी स्थित कार्यालय में बैठक हुई।
यूनियन की चिंता आक्रोशित कर्मचारियों को मनाने व वेतन जारी कराने को लेकर है। प्रबंधन ने आर्थिक संकट का हवाला देकर वेतन देने से पल्ला झाड़ा हुआ है। वहीं, कर्मचारियों ने कहा कि इस हालत में राजकीयकरण ही एकमात्र जरिया है।
वेतन को लेकर परिषद के प्रदेश महामंत्री दिनेश पंत ने कि प्रबंधन नियमित और विशेष श्रेणी कर्मियों को न तो वेतन दे पा रहा, न ही लंबित देय का भुगतान नहीं कर रहा। कर्मियों को जनवरी का वेतन तक नहीं मिला है व एक अप्रैल को पूरे तीन माह बिना वेतन पाए होने जा रहे।
ऐसे में कर्मचारी काम कैसे कर सकते हैं। राज्य सरकार ने 2013 की आपदा में गई बसों का 21 करोड़ रुपये बकाया नहीं दिया, छह वर्ष से राष्ट्रीय छुट्टियों के देय का भुगतान नहीं हुआ, न ही परिवहन भत्ता नहीं मिला और 50 माह से अतिकाल भत्ता नहीं दिया गया। कर्मचारियों ने महीने की पहली तारीख को वेतन जारी करने की मांग की।
कर्मचारी यूनियन के प्रांतीय महामंत्री अशोक चौधरी ने कहा कि नियमानुसार हर माह वेतन पहले हफ्ते में ही मिलना चाहिए मगर प्रबंधन ऐसा करने में विफल साबित हो रहा।