मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाना पड़ता है। यह सभी आधार आस्तिकतावादी दर्शन में कूट-कूटकर भरे हैं। आज का विकृत अध्यात्म-दर्शन तो मनुष्य को उलटे भ्रम जंजालों में फंसाकर सामान्य व्यक्तियों से भी गई-गुजरी स्थिति में धकेल देता है। पर यदि उसका यथार्थ स्वरूप विदित हो और उसे अपनाने का साहस बन पड़े तो निश्चित रूप से परिष्कृत व्यक्तित्व का लाभ मिलेगा।
जहाँ यह सफलता मिली वहाँ अन्य सफलताएँ हाथ बाँधकर सामने खड़ी दिखाई पड़ेंगी। महामानवों द्वारा प्रस्तुत किये गए चमत्कारी क्रिया-कलाप इसी तथ्य की साक्षी देते हैं, इसी को सिद्धि कहते हैं। अध्यात्मवादी आस्तिक व्यक्ति चमत्कारी सिद्धियों से भरे-पूरे हैं। इस मान्यता को उपरोक्त आधार पर अक्षरशः सही ठहराया जा सकता है। किन्तु यदि सिद्धि का मतलब बाजीगरी जैसी अचंभे में डालने वाली करामातें समझा जाय तो यही कहा जायगा कि वैसा दिखाने वाले धूर्त और देखने के लिए लालायित व्यत्ति मूर्ख के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
कल्पवृक्ष पर लगने वाला दूसरा फल है-स्वर
आस्तिकता के कल्पवृक्ष पर लगने वाला दूसरा फल है-स्वर्ग। स्वर्ग का अर्थ है-परिष्कृत गुणग्राही विधायक दृष्टिकोण। परिष्कृत दृष्टिकोण होने पर अभावग्रस्त दरिद्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि मनुष्य जीवन अपने आप में इतना पूर्ण है कि उसे संसार की किसी भी सम्पदा की तुलना में अधिक भारी माना जा सकता है। शरीर यात्रा के अनिवार्य साधन प्रायः हर किसी को मिले होते हैं।
अभाव, तृष्णाओं की तुलना में उपलब्धियों को कम आँकने के कारण ही प्रतीत होता है। अभावों की, कठिनाइयों की, विरोधियों की लिस्ट फाड़ फेंकी जाय और उपलब्धियों की, सहयोगियों की सूची नये सिरे से बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई।
दरिद्रता चली गई और उसके स्थान पर वैभव आ विराजा। छिद्रान्वेषण की आदत हटाकर गुणग्राहकता अपनाई जाय तो प्रतीत होगा कि इस संसार में ईश्वरीय उद्यान की, नन्दन वन की सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं। स्वर्ग इसी विधायक दृष्टिकोण का नाम है जिसे अपनाकर अपनी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की देव सम्पदा को हर घड़ी प्रसन्न रहने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।
आस्तिकता का तीसरा प्रतिफल है-मुक्ति
आस्तिकता का तीसरा प्रतिफल है-मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है-अवांछनीय भव-बंधनों से छूटना। अपनी दुष्प्रवृत्ति, मूढ़ मान्यतायें एवँ विकृत आकांक्षाएँ ही वस्तुत सर्वनाश करने वाली पिशाचिनी हैं।
काम, क्रोध लोभ, मोह मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, छल, चिन्ता, भय, दैन्य जैसे मनोविकार ही व्यक्तित्व को गिराते-गलाते, जलाते रहते हैं। आधि और व्याधि इन्हीं के आमन्त्रण पर आक्रमण करती हैं। आस्तिकता इन्हीं दुर्बलताओं से जूझने की प्रेरणा भरती है।
सारा साधना शास्त्र इन्हीं दुर्बलता को उखाड़ने, खदेड़ने की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने के लिए खड़ा किया गया है। इनसे छुटकारा पाने पर देवत्व द्रुतगति से उभरता है और अपने स्वतन्त्र सत्ता का उल्लास भरा अनुभव होता है।