ईद के मौके पर इस्लामिक आस्था फलक पर है और इसी के साथ रामनगरी अयोध्या से इस्लाम का जुड़ाव परिभाषित हो रहा है। यह जुड़ाव सातवीं शताब्दी में हजरत मुहम्मद के दौरे के बहुत पहले का है। इस्लामिक परंपरा में प्रथम पैगंबर के रूप में हजरत आदम की प्रतिष्ठा है, जिसे सनातन परंपरा मनु के नाम से जानती है। इन्हीं हजरत आदम की औलादों में हजरत शीश दिव्य गुणों से युक्त थे और उन्हें दूसरे पैगंबर का गौरव हासिल है।
रामनगरी के पौराणिक स्थल मणिपर्वत के पृष्ठ में हजरत शीश की मजार स्थित है। हजरत शीश की दरगाह के गद्दीनशीन मौलाना आसिफ के अनुसार, यहां हिदू-मुस्लिम समान रूप से मन्नत मांगने आते हैं। आध्यात्मिक गुरु स्वामी सत्यमित्र उर्फ जय सिह चौहान के अनुसार इस्लामिक परंपरा वस्तुतः अनादि सनातनी धारा का ही परिष्कृत संस्करण है और इस्लाम के आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद से पूर्व अयोध्या से जुड़ती इस्लामिक परंपरा इस सच्चाई की पुष्टि करती है।
सनातनी धार और इस्लाम से रिश्तों की सुगंध अयोध्या कोतवाली के पीछे नौगजी मजार पर भी महसूस की जा सकती है। नौगजी की मजार हजरत नूह के पौत्र से समीकृत की जाती है, इस्लामिक परंपरा जिन्हें हिदुस्तान का निर्माता मानती है। इसी विरासत के अनुरूप मध्यकाल में सूफी संतों की पूरी पांत-पीढ़ी रामनगरी की ओर उन्मुख नजर आती है।
ऐसे ही सूफी फकीरों में हजरत इब्राहिम शाह का जिक्र अहम है। उनकी स्मृति स्वर्गद्वार स्थित हजरत इब्राहिम शाह की दरगाह से प्रवाहमान है। मान्यता है कि हजरत की दर से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। यदि सच्चे दिल से पुकार उठती है तो दुआ भी मिलनी तय मानी जाती है।
ऐतिहासिक विवरण के अनुसार हजरत ताशकंद के शाहजादे थे पर किशोरावस्था से ही वह दुनियादारी से इतर दुनिया के मालिक से मुहब्बत की ओर उन्मुख हुए और राजकीय वैभव-विलास को तिलांजलि दे लंबी यात्रा करते हुए अयोध्या आ पहुंचे।
मुस्लिम लीग के प्रांतीय अध्यक्ष और सूफी संतों के मुरीद डॉ. नजमुल हसन गनी के अनुसार हजरत का अयोध्या आना महज संयोग नहीं था। हकीकत तो यह है कि अयोध्या की जमीन बहुत हसीन और पाक है, यहां कदम नहीं पलक के बल चलना चाहिए और इस रूहानी सच्चाई से ही प्रेरित हो हजरत इब्राहिम ने पवित्र नदी सरयू के तट पर स्थित उस स्थान पर धूनी रमाई होगी, जिसे सदियों से अड़गड़ा नाम से जाना जाता है। इब्राहिम शाह की गणना शेख मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, किछौछा में आराम फरमा हजरत जहांगीर समनानी जैसे शीर्षस्थ सूफी संतों में होती रही है।
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