देश की दलित सियासत के फलक पर दो युवा चेहरों ने दस्तक दी है. इनमें एक गुजरात में दलित आंदोलन से निकले जिग्नेश मेवाणी हैं तो दूसरे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलित-राजपूत हिंसा से सुर्खियों में आए भीम सेना के मुखिया चंद्रशेखर रावण. इन दोनों युवा चेहरों ने बीएसपी प्रमुख मायावती की बेचैनी बढ़ा दी है क्योंकि ये उनकी सियासत के लिए चुनौती बन रहे हैं. यही वजह है कि मायावती अपने 62वें जन्मदिन पर अपने समर्थकों को इन नेताओं से सचेत करती दिखीं.
जिग्नेश से भयभीत मायावती?
मायावती ने अपने 62वें जन्मदिन पर पार्टी समर्थकों को गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी से सचेत किया. उन्होंने कहा कि जिग्नेश ने निर्दलीय रूप में जरूर चुनाव जीता है, लेकिन उसमें दलितों के वोट का योगदान नहीं है. कांग्रेस के हाथ का साथ मिलने से जिग्नेश विधायक बने हैं. कांग्रेस अब पर्दे के पीछे रहकर जिग्नेश को देश में जगह-जगह भेज रही है. इसकी आड़ में वो फायदा उठाना चाहती है. इससे दलित समाज को सचेत रहने की जरूरत है.
दलित सियासत के समीकरण
बता दें कि देश भर में करीब 20 फीसदी दलित मतदाता हैं. एक दौर में दलित वोटर पहले कांग्रेस के साथ रहे, लेकिन 1980 के बाद दलित राजनीति में बड़ा बदलाव आया. इसमें बीएसपी के संस्थापक कांशीराम की अहम भूमिका रही. 80 के दशक में ही मायावती का भारतीय राजनीति में उद्भव हुआ. कांशीराम ही मायावती को सियासत में लाए. उन्होंने दलित विचारधारा को आंदोलन का रूप देकर सियासी दल बनाया, जिसने आगे चलकर उत्तर भारत की राजनीति बदल दी.
बीएसपी से मायावती का उद्भव
कांशीराम की मेहनत से खड़ी की गई बीएसपी ने देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में सत्ता पर कब्जा किया. 1995 में पहली बार मायावती मुख्यमंत्री बनीं. इसके बाद मायावती ने बदलते समय के साथ बहुजन के नारे को सर्वजन में तब्दील कर दिया. नतीजा अच्छा रहा और मायावती की ये बीएसपी 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ यूपी की सत्ता में आई, लेकिन 2012 में बीएसपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई और उसकी उल्टी गिनती शुरू हो गई. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी का एक भी सांसद नहीं जीता. 2017 में भी बीएसपी के सत्ता में आने का सारा ख्वाब बीजेपी ने चूर कर दिया और पार्टी सूबे में तीसरे पायदान पर लुढ़क गई.
मायावती के लिए क्या खतरा बनेंगे जिग्नेश?
दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भले ही गुजरात से निर्दलीय विधायक बने हैं, लेकिन देश के बाकी राज्यों में भी सक्रिय भूमिका निभाने के लिए निकल पड़े हैं. मनुवाद और सामंतवाद हमेशा ही मायावती की राजनीति के निशाने पर रहे हैं. जिग्नेश मेवाणी भी इसी मूलमंत्र के जरिए आगे बढ़ रहे हैं. पिछले दिनों जंतर मंतर पर जिग्नेश मेवाणी ने पीएम नरेंद्र मोदी को संविधान और मनुस्मृति में से किसी एक को चुनने की बात कही. इस तरह वो मायावती के सियासी फॉर्मूले को अपना हथियार बनाकर उनके लिए चुनौती बन रहे हैं.
मायावती के मुकाबले जिग्नेश मुखर हैं, युवा हैं और सोशल मीडिया का इस्तेमाल जानते हैं. दलित युवकों के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश तक में उनके जाने पर भीड़ उमड़ रही है, जिसने मायावती को बेचैन कर दिया है.
मायावती के दुर्ग में रावण की दस्तक
भीम सेना के प्रमुख चंद्रशेखर रावण उत्तर प्रदेश से हैं और मायावती की ही जाति से आते हैं. रावण ने सहारनपुर में दलितों के संगठन भीम सेना की स्थापना की थी. 2016 में ये संगठन तेजी से उभरने लगा और बहुत ही कम समय में दलित समाज के बीच चंद्रशेखर लोकप्रिय हो गए. पश्चिम यूपी मायावती का मजबूत दुर्ग माना जाता है. यूपी में करीब 19 फीसदी दलित मतदाता हैं, उनमें भी जाटव की भागीदारी 16 फीसदी है. मायावती इसी समाज से आती हैं और चंद्रशेखर रावण भी.
चंद्रशेखर ने पश्चिम यूपी के सहारनपुर के दलित युवाओं को अपने साथ जोड़ा, हालत ये हो गए कि गांव के बाहर ‘द ग्रेट चमार’ के बड़े-बड़े बोर्ड लगा दिए गए. यूपी में योगी सरकार बनने के एक महीने के बाद सहारनपुर के शब्बीरपुर में दलित और राजपूत समाज के बीच हिंसा हुई. हिंसा में कई घर जला दिए गए. पुलिस ने चंद्रशेखर पर इस हिंसा की साजिश रचने और भीड़ का नेतृत्व करने के आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया. चंद्रशेखर अब भी जेल में बंद हैं. मायावती शब्बीरपुर की बात तो करती हैं, लेकिन चंद्रशेखर रावण के लिए एक शब्द नहीं बोलतीं. जानकारों की मानें तो उन्हें कहीं न कहीं चंद्रशेखर रावण से सियासी डर सता रहा है.
कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का बनेंगे जिग्नेश-रावण
जिग्नेश मेवाणी का कांग्रेस कनेक्शन जगजाहिर है. अगर पार्टी चंद्रशेखर रावण को भी अपने खेमे में लाने में सफल होती है तो इन दो युवा चेहरों के जरिए वो मायावती के दलित वोटों में सेंध लगा सकती है. साथ ही देश में भी दलित नेताओं का एक नया विकल्प दे सकती है. दलित-मुस्लिम-पिछड़े गठजोड़ के बल पर कांग्रेस को अपने अच्छे दिन वापस लौटने की उम्मीद है. वो इसमें कितनी सफल होती है ये तो 2019 में पता चलेगा लेकिन फिलहाल कांशीराम के कंधों के सहारे और दलित मतों के दम पर खड़ी हुईं बीएसपी सुप्रीमो मायावती के माथे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही हैं.