माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पितामह भीष्म ने अपने शरीर का त्याग किया था। यह दिन उनका निर्वाण दिवस है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद जब भगवान सूर्यदेव दक्षिणायन से उत्तरायण हुए तब पितामह भीष्म ने अपना शरीर त्यागा। पितामह भीष्म की स्मृति में यह व्रत किया जाता है।
पितामह भीष्म को अपनी सत्यनिष्ठा और अपने पिता के प्रति अटूट प्रेम के कारण यह वरदान प्राप्त था कि वह अपनी मृत्यु का समय स्वयं निश्चित कर सकते थे। पितामह भीष्म का नाम देवव्रत था। उन्होंने गंगाजल हाथ में लेकर शपथ ली थी कि आजीवन अविवाहित रहूंगा।
इसी दृढ़ प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। उनके पिता राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित मृत्यु का वरदान दिया था। पितामह भीष्म ने जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन किया। भीष्म अष्टमी के दिन पितामह भीष्म के निमित्त कुश, तिल व जल लेकर तर्पण करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन पितामह भीष्म की स्मृति में कुश, तिल, जल के साथ श्राद्ध तर्पण करने से गुणवान संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है।