आखिर कहां से आते हैं नागा साधु और कहां कर जाते हैं प्रस्थान, जानकर हो जायेंगे हैरान

हर कुंभ में देश के कोने-कोने से प्रयागराज आने वाले, चप्पे-चप्पे पर ओंकार नाम की अलख जगाने वाले, शाही जुलूसों में अस्त्र-शस्त्र चमकाने वाले और त्रिवेणी की गोद में किलकारियां करने वाले दिगंबर वेषधारी नागा साधु इस आयोजन के बाद कहां चले जाते हैं। क्या है यह रहस्य और क्या है इससे जुड़ी कहानी।

यह जानने के लिए जूना अखाड़े के भारती आश्रम गिरनार से आए अघोरी बाबा से भेंट की। बाबा, प्रश्न सुनते ही मुस्कुराते हैं और मेरी पीठ पर एक धौल जमाते हैं। क्या करेगा बच्चा जानकर। बहुत मनुहार के बाद साधु बाबा धुनी पर त्रिशूल गाड़ते हैं और अपने किसी अधीनस्थ को पुकारते हैं। आदेश का तुरंत पालन होता है और मुझे सबसे पहले दर्शन कराए जाते हैं गुरु दत्तात्रेय स्वामी के।

चित्र में गैरिक वस्त्रधारी, हाथ में त्रिशूल लिए एक सौम्य मुद्रा वाले संन्यासी की छवि के दर्शन होते हैं। श्वान और गोवंश से घिरे इस महामानव के चरणों में प्रणाम करने के बाद अघोरी बाबा बताते हैं कि यह हैं स्वामी दत्तात्रेय, हर कुंभ के बाद हम सबकी हाजिरी इन्हीं के चरणों में दर्ज होती है।

वह बताते हैं कि फर्क सिर्फ इतना है कि बाकी दिनों में समाज में रहने की वर्जना के चलते हमें भी वस्त्र में रहने का आदेश है। यहां जितने भी साधु दिख रहे हैं, अंबर या दिगंबर, सभी नागा साधु ही हैं। कुंभ में अपने नैसर्गिक वेशभूषा में आने का एकमात्र कारण है, अपने मूल स्वरूप का प्रदर्शन। भाव यह भी है कि मां की गोद में जिस रूप में आए थे, उसी रूप में जाना है।

सनातन धर्म को समर्पित सेना दरअसल, नागा संन्यासी सनातन धर्म की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य द्वारा गठित की गई धर्म सेना है। जब भी सनातन धर्म पर संकट आया, नागा साधुओं ने धर्म के रक्षार्थ अपना शीश कटाया। इसीलिए आध्यात्म के सूत्रों के अलावा शस्त्र संचालन की दीक्षा भी नागा व्रत का एक महत्वपूर्ण अंग है।

जूना अखाड़ा के मुख्य संरक्षक महंत हरि गिरि बताते हैं कि आम दिनों में नागा संन्यासी यदि निर्वस्त्र दिखता है तो थोड़ी असहज स्थिति होती है। यही वजह है कि जिन नागा संन्यासियों को वस्त्र धारण नहीं करना होता है वे खुद को आश्रम में कैद कर लेते हैं या पर्वतों की कंदराओं में। आश्रम में रहने वाले नागा संन्यासी आश्रम परिसर के भीतर ही व्यवस्थाओं को संभालते हैं।

गौरव का प्रतीक है शस्त्र सनातन संस्कृति और धरती माता पर जब-जब संकट आया, नागा संन्यासियों ने मोर्चा संभाला। इनके शिविरों में त्रिशूल-भाला आदि शस्त्रों का पूजन होता है, जो कि नागा साधुओं के गौरव के प्रतीक हैं।

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