अफगानिस्तान दुनिया का सबसे खतरनाक युद्ध क्षेत्र बना हुआ है. यहां पर पिछले 18 सालों से गुरिल्ला जंग लड़ रहा है. अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच कतर में जो बातचीत चल रही है उस पर सभी की नजर है. इस बातचीत का हिस्सा भारत वहां निवेश करके नहीं बनेगा ना ही आफगानिस्तान. अमेरिकी राष्ट्रपति इस बात को लेकर खासा उत्साहित हैं. वहीं पाक और चीन की इस बात में भी शामिल होना.
वार्ता की जल्दबाजी में ट्रंप!
अफगान वार्ता में शांति की जटिल शर्तों से ज्यादा दुनिया इस बात को लेकर उत्सुक है कि अमेरिका जिस तालिबान को आतंकी घोषित कर 2001 के 9/11 हमलों के बाद से जंग लड़ रहा है उसी तालिबान से उसकी बातचीत किस हद तक सफल हो पाएगी. ट्रंप अफगानिस्तान से जल्द अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाकर अमेरिका के लोगों से किया अपना चुनावी वादा निभाना चाहते हैं लेकिन अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में फिर अराजकता न हो इसके लिए तालिबान से बातचीत कर रास्ता ढूंढने की कोशिशें हो रही हैं. इसके लिए 8 दौर की बातचीत हो चुकी है और कतर में नौवें दौर की बातचीत जारी है.
जानिए कौन-कौन हैं वार्ताकार
अमेरिका की ओर से बातचीत कर रहे हैं अफगान मूल के अमेरिकी राजनयिक जलमी खलीलजाद तो तालिबान की ओर से 14 सदस्यीय टीम इस वार्ता में शामिल है. तालिबान के वार्ताकारों का नेता है मुल्ला अब्दुल गनी बरादर. बरादर ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर का करीबी रहा है और तालिबान का संस्थापक और नंबर दो स्थान पर माना जाता है. तालिबान की इस टीम में हक्कानी गुट के नेता का भाई अनस हक्कानी भी है. वार्ताकारों की टीम में क्यूबा की कुख्यात ग्वांतानामो बे जेल में बंद रहे 5 पूर्व तालिबान लड़ाके भी शामिल हैं. जिन्हें अमेरिकी सार्जेन्ट की रिहाई के बदले 2014 में तालिबान ने अमेरिका से छुड़ाया था.
तालिबान के पूर्व लड़ाकों को वार्ता की टेबल पर लाकर अमेरिका शांति का रास्ता ढूंढने और 18 साल से जारी अफगान विवाद से जल्दी से जल्दी पीछा छुड़ाने की कोशिश में है. रूस और चीन इस वार्ता को सफल बनाने के लिए अलग से कोशिशें कर रहे हैं. अमेरिका इस वार्ता को सफल बनाने के लिए पाकिस्तान से भी काफी उम्मीदें लगाए हुए है क्योंकि वो जानता है कि तालिबान को बनाने, पालने और बचाने में पाकिस्तान की सीधी भूमिका है.
कौन है तालिबान का मुख्य वार्ताकार मुल्ला बरादर?
तालिबान का प्रमुख वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तालिबान के संस्थापकों में से एक है और उसका संगठन के लोगों पर अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है. वह अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के पहले ओसामा बिन लादेन का निकट सहयोगी था. 1994 में तालिबान की स्थापना में उसने मुल्ला उमर के साथ काम किया था. बरादर को तालिबान के मुखिया मुल्ला उमर के बाद दूसरे नंबर पर माना जाता था.
2001 में तालिबान सरकार के गिरने तक वह अफगानिस्तान में कई पदों पर रहा था. मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को आईएसआई और सीआईए के एक सीक्रेट ऑपरेशन के तहत 2010 में पाकिस्तान के कराची शहर से गिरफ्तार किया गया था. 2018 तक वह जेल में ही रहा. लेकिन वार्ता के लिए अमेरिका ने उसे रिहा करवाया. तबसे वह कतर में तालिबान के राजनयिक दफ्तर को चलाता है.
क्या हैं दोनों पक्षों की मांगें?
इस वार्ता में तालिबान की मुख्य मांग है कि अफगानिस्तान से विदेशी सुरक्षा बल बाहर चले जाएं. तालिबान से उसकी इस मांग के बदले अमेरिका यह आश्वासन चाहता है कि वह अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादियों के अड्डे के रूप में इस्तेमाल नहीं होने देगा. खासकर अलकायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों को वहां बढ़ावा नहीं देगा. इसके अलावा दोनों ओर से कैदियों की अदला-बदली की जाएगी और कुछ तालिबान नेताओं पर लगाया गया ट्रैवल बैन भी हटाया जा सकता है.
इसमें पेच अफगान सरकार और पाकिस्तान के बीच जारी मतभेद को लेकर भी है. दरअसल अफगानिस्तान पाकिस्तान पर तालिबानी और हक्कानी नेटवर्क के आतंकवादियों को अपने यहां सुरक्षित पनाह देने का आरोप लगाता रहा है.
अमेरिका के लिए भी स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी
अफगानिस्तान में नाटो देशों के 20 हजार से अधिक सैनिक तैनात हैं. जिनमें से अधिकांश अमेरिकी सैनिक हैं. जो आतंकवाद रोधी ऑपरेशन के अलावा अफगान सैनिकों की ट्रेनिंग, तकनीकी सहायता और सामरिक तैयारियों में जुटे हैं. दूसरी ओर राजधानी काबुल को छोड़ दें तो अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से में आज तालिबान के गुटों का अच्छा खासा नियंत्रण है. अमेरिका के लिए दो बड़ी चुनौतियां सामने हैं.
एक तरफ जहां अमेरिकी सैनिकों की वापसी करानी है तो सितंबर में होने वाले अफगान राष्ट्रपति का चुनाव भी शांतिपूर्वक संपन्न कराना है. विदेशी सैनिकों के हटने के बाद तालिबान के विभिन्न गुट फिर गुरिल्ला युद्ध में जुट न जाएं इसका खतरा अलग से है.
क्या हासिल हुआ अमेरिका को अफगान वॉर से
2001 में 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अफगान में तालिबान और अलकायदा के खिलाफ जंग छेड़ी थी. तब से अमेरिका वहां एक खरब डॉलर खर्च कर चुका है. अमेरिका अब अफगान वॉर में अपने सैनिकों के जानमाल का और नुकसान नहीं चाहता है. पिछले हफ्ते ही एक हमले में दो अमेरिकी सैनिकों की मौत हो गई. इस साल अबतक अमेरिका को अफगान वॉर में 14 सैनिकों की जान का नुकसान उठाना पड़ा है.
अब ट्रंप जल्द से जल्द अमेरिकी सैनिकों को वहां से वापस बुलाना चाहते हैं. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका और तालिबान के बीच किसी समझौते मात्र से अफगानिस्तान में शांति नहीं आएगी बल्कि तालिबान को अमेरिका समर्थित अफगानिस्तान की सरकार के साथ भी बातचीत कर कोई सहमति बनानी होगी.
तालिबान को लेकर क्या है डर
वार्ता से थोड़ी उम्मीदें हैं तो तालिबान के भविष्य को लेकर संशय ज्यादा हैं. तालिबान ने ये संदेश बार बार दिया है कि वो कहीं भी हमला कर सकता है, अफगानिस्तान की जमीन के एक बड़े हिस्से पर उसका नियंत्रण है और उसके बगैर कोई राजनीतिक समाधान नहीं हो सकता. अमेरिका के जाने के बाद अगर तालिबान सत्ता में हिस्सेदार बनता है तो तालिबान के उग्र इस्लामी एजेंडे के लागू होने से क्षेत्र में फिर कट्टरवाद को बढ़ावा मिलेगा.
क्योंकि सत्ता में आने के बाद तालिबान को रोकने वाला कोई नहीं होगा. और 2001 से पहले तलिबान अपने क्रूर और कट्टर शासन की झलक अफगानिस्तान में दिखा चुका है. आज भारत की आधुनिक परियोजनाओं के कारण अफगानिस्तान फिर आधुनिकता के रास्ते पर चल पड़ा है. तालिबान और पाकिस्तान का कट्टरपंथ फिर अफगान लोगों की तरक्की के रास्ते में बाधा न बन जाएं.
तालिबान और पाकिस्तान को लेकर भारत की मुख्य चिंताएं
2001 में जब से अफगान वॉर छिड़ा है भारत ने वहां विकास और पुनरुत्थान के लिए कई परियोजनाएं शुरू की हैं. भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए 4 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है. अफगान संसद का पुनर्निर्माण, सलमा बांध का निर्माण, जरंज डेलारम सड़क निर्माण, गारलैंड राजमार्ग के निर्माण में सहयोग, बामियान से बंदर-एअब्बास तक सड़क निर्माण, काबुल क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण कराया है तो 4 मिग-25 अटैक हेलिकॉप्टर दिए हैं. अफगान रक्षा बलों को भारत ट्रेनिंग भी दे रहा है.
अफगानिस्तान को कट्टरपंथ की राह पर न ले जाए तालिबान
भारत की चिंता पाकिस्तान के साथ सामरिक हालात और विदेशी सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में अपनी विकास परियोजनाओं और निवेश की सुरक्षा को लेकर है. भारत, तालिबान को मान्यता नहीं देता है और कहता रहा है कि तालिबान अपने कट्टर एजेंडे से बाहर नहीं निकल सकता. ऐसे में कहीं फिर पाकिस्तान-तालिबान की जुगलबंदी अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए न करने लगें.
चीन को लेकर भी भारत सतर्क
इसके अलावा अमेरिका के हटने के बाद पाकिस्तान और चीन का अगर प्रभाव अफगानिस्तान में बढ़ता है तो ये भारत की चिंता बढ़ाने वाली स्थिति होगी. पाकिस्तान तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान को चीन के वन बेल्ट वन रोड परियोजना से जोड़ने की कोशिश करेगा जो कि भारत के आर्थिक और सामरिक हितों के लिए खतरनाक हो सकता है.